Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सामायिक :
राग-द्वेषरहित समभाव को सामायिक कहते हैं। "मैं सामायिक करता हूँ, यावजीवन सब प्रकार के सावध योग का प्रत्याख्यान करता हूँ-मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करता हूँ, उससे निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, अपने आपका त्याग करता हूँ। मैंने दिनभर में यदि व्रतों में अतिचार लगाया हो, सूत्र अथवा मार्ग के विरुद्ध आचरण किया हो, दुर्ध्यान किया हो, श्रमणधर्म की विराधना की हो तो वह सब मिथ्या हो । जब तक मैं अर्हन्त भगवान् के नमस्कारमन्त्र का उच्चारण कर कायोत्सर्ग न करूँ, तब तक मैं अपनी काया को एक स्थान पर रखेंगा, मौन रहूँगा, ध्यान में स्थित रहूँगा।" चतुर्विंशतिस्तव : __चतुर्विंशतिस्तव में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। “लोक को उद्योतित करने वाले धर्म के तीर्थंकर चौबीस केवलियों का मैं स्तवन करूँगा। तीर्भकर मुझ पर प्रसन्न हों, मैं उनकी कीर्ति, वन्दना और महिमा करता हूँ।" वंदन:
चन्दन अर्थात् स्तवन । "हे क्षमाश्रमण ! मैं आपकी वन्दना करने की इच्छा करता हूँ, आप मुझे वन्दन के लिए उचित अवग्रह ( गुरु के पास बैठने का मर्यादा-प्रदेश) की अनुमति प्रदान करें।" शिष्य गुरु के चरणों को अपने हाथों से स्पर्श करके कहता है-"यदि आपको कष्ट हुआ हो तो क्षमा करें । अतिशय सुख-पूर्वक आपका दिन व्यतीत हो । तप, नियमादिरूप आपकी यात्रा कैसी है ? इन्द्रियों की स्वाधीनतारूपी यापनीयता कैसी है ? हे क्षमाश्रमण ! मैंने मन, वचन और काय की दुष्टता अथवा क्रोध, मान, माया और लोभ से जो कुछ किया है, उसे क्षमा करें।" प्रतिक्रमण :
प्रमादवश शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। "अरिहन्त, सिद्ध और साधु लोक में उत्तम हैं, केवली का कहा हुआ धर्म लोक में उत्तम है। अरिहन्त, सिद्ध
और साधु की मैं शरण जाता हूँ, केवली के कहे हुए धर्म की शरण जाता हूँ। मैंने शास्त्र, मार्ग अथवा आचार के विरुद्ध जो मन, वचन और काय से दिवससम्बन्धी अतिचार किया हो, अथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत, सामायिक, तीन
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