Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बृहरकल्प
१०. राजधानी ( जहाँ राजा के रहने के महल आदि हों)। ११. आश्रम (जहाँ तपस्वी आदि रहते हो)। १२. निवेश-सन्निवेश (जहाँ सार्थवाह आकर उतरते हों)। १३. सम्बाध-संबाह ( जहाँ कृषक रहते हों अथवा अन्य गाँव के लोग अपने
गाँव से धन आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर
ठहरे हुए हों)। १४. घोष ( जहाँ गाय आदि चराने वाले गूजर लोग-ग्वाले रहते हों)। १५. अंशिका (गाँव का अध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग)। १६. पुटभेदन (जहाँ परगाँव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों)।
मासकल्पविषयक द्वितीय सूत्र में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि ग्राम, नगर आदि यदि प्राचीर के भीतर एवं बाहर इन दो विभागों में बसे हुए हों तो ऋतुबद्धकाल में भीतर एवं बाहर मिला कर एक क्षेत्र में निर्ग्रन्थ एक साथ दो मास तक ( एक मास अन्दर एवं एक मास बाहर ) रह सकते हैं। अन्दर रहते समय भिक्षाचर्या आदि अन्दर एवं बाहर रहते समय भिशाचर्या आदि बाहर ही करना चाहिए।
निर्ग्रन्थियों के लिए यह मर्यादा दुगुनी कर दी गई है। बाहर की वसति से रहित ग्राम आदि में निर्ग्रन्थियाँ ऋतुबद्धकाल में लगातार दो मास तक रह सकती हैं। बाहर की वसति वाले प्रामादिक में दो महीने भीतर एवं दो महीने बाहर इस प्रकार कुल चार मास तक एक क्षेत्र में रह सकती हैं। भिक्षाचर्या आदि के नियम निर्ग्रन्थों के समान ही समझने चाहिए।
वगडाविषयक प्रथम सूत्र में एक परिक्षेप (प्राचीर ) एवं एक द्वार वाले ग्राम आदि में निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के एक साथ (एक ही समय ) रहने का निषेध किया गया है। द्वितीय सूत्र में इसी बात का विशेष स्पष्टीकरण किया गया है। अनेक परिक्षेप-अनेक द्वार वाले ग्रामादि में साधु-साधियों को एक ही समय रहना कल्प्य है।
आपणगृहादिसम्बन्धी सूत्रों में बतलाया गया है कि जिस उपाश्रय के चारों ओर दुकाने हों, जो गली के किनारे पर हो, जहाँ तीन, चार अथवा छः रास्ते
१. इन शब्दों की व्याख्या के लिए देखिए-बृहत्कल्प-लत्रुभाष्य, गा.
१०८८-१९९३.
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