Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अनुयोगद्वार
३३७ आगम वे हैं जिन्हें पूर्ण ज्ञान एवं दर्शन को धारण करनेवाले, भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता, तीनों लोकों के प्राणियों से पूजित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अर्हत् प्रभु ने बताया है जैसे द्वादशांग गणिपिटक । अथवा आगम तीन प्रकार के हैं : सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम अथवा आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थकर प्ररूपित अर्थ उनके लिए आत्मागम है। गणधरप्रणीत सूत्र गणधर के लिए आत्मागम एवं अर्थ अनन्तरागम है । गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रों को अनन्तरागम एवं अर्थ को परम्परागम कहते हैं। इसके बाद सूत्र और अर्थ दोनों ही परम्परागम हो जाते हैं। यहाँ तक ज्ञानगुणप्रमाण का अधिकार है।
दर्शनगुणप्रमाण चार प्रकार का है : चक्षुर्दर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुर्दर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण । चारित्रगुणप्रमाण का व्याख्यान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि चारित्र पाँच प्रकार का होता है : सामायिक-चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहारविशुद्धि-चारित्र, सूक्ष्मसंपरायचारित्र और यथाख्यात-चारित्र। सामायिक चारित्र के दो भेद हैं : इत्वरिक ( अल्पकालिक) और यावत्कथिक (जीवनपर्यन्त )। छेदोपस्थापनीय-चारित्र के भी दो भेद हैं : सातिचार और निरतिचार ( सदोष और निर्दोष)। इसी प्रकार शेष तीन प्रकार का चारित्र भी क्रमशः दो-दो प्रकार का है : निविश्यमान और निर्विष्टकायिक, प्रतिपाती और अप्रतिपाती, छाद्मस्थिक और केवलिक । प्रस्तुत सूत्र में इन भेद-प्रभेदों के स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला गया है । यहाँ तक गुणप्रमाण का अधिकार है।
भावप्रमाण के द्वितीय भेद नयप्रमाण का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने प्रस्थक, वसति एवं प्रदेश के दृष्टान्त से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत-इन सात नयों का स्वरूप स्पष्ट किया है।'
भावप्रमाण के तृतीय भेद संख्याप्रमाण का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि संख्या आठ प्रकार की होती है : नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, उपमानसंख्या, परिमाणसंख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या और भावसंख्या। इनमें से गणनासंख्या विशेष महत्त्वपूर्ण है। अतः सूत्रकार ने इसका विशेष विवेचन किया है।
जिसके द्वारा गणना की जाए उसे गणनासंख्या कहते हैं। एक का अङ्क गणना में नहीं आता (एको गणणं न उवेइ) अतः दो से गणना-संख्या प्रारम्भ
१. सू. ८३-६. २. सू. ८७. ३. सू. ८४. ४. सू. ८९-९२. ५. सू. ९३.
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