Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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रामधार
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तम्हा निउणं निहालेर, गच्छं सम्मम्गपट्ठियं ।
वसिष्ज तत्थ आजम्म, गोयमा ! संजए मुणी ॥७॥ जो गुरु शिष्य को दंडादि द्वारा हितमार्ग में नहीं लगाता वह वैरी के सदृश है। इसी प्रकार को शिष्य गुरु को धर्ममार्ग नहीं दिखाता वह भी शत्रु के समान है :
जीहाए विलिहतो न भहओ सारणा जहिं नत्थि । डंडेण वि ताडतो स भद्दओ सारणा जत्थ ॥१७॥ सीसो वि वेरिओ सो उ, जो गुरुं न विबोहए।
पमायमइराघत्थं, सामायारीविराहयं ॥ १८ ॥ भ्रष्टाचारी आचार्य, भ्रष्टाचारियों की उपेक्षा करने वाला आचार्य तथा उन्मार्गस्थित आचार्य-ये तीनों मोक्षमार्ग का विनाश करने वाले हैं :
भट्ठायारो सूरी भट्ठायाराणुवेक्खओ सूरी।
उम्मग्गठिओ सूरी तिन्नि वि मग्गं पणासंति ॥ २८॥ गच्छ महाप्रभावशाली है। उसमें रहने से महानिर्जरा होती है तथा सारणा, चारणा, प्रेरणा आदि से नये दोषों की उत्पत्ति रुक जाती है :
गच्छो महाणुभावो तत्थ वसंताण निन्जरा विउला ।
सारणवारणचोअणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥ ५१ ॥ जिस गच्छ में दान, शील, तप और भावना-इन चार प्रकार के धर्मों का आचरण करने वाले गीतार्थ मुनि अधिक हों वह सुगच्छ है :
सीलतवदाणभावण चउव्विहधम्मंतरायभयभीए ।
जत्थ बहू गीअत्थे गोअम ! गच्छं तयं भणियं ।। १००॥ साध्वियों को किस प्रकार शयन करना चाहिए ? इसका विचार करते हुए प्रस्तुत प्रकीर्णक में कहा गया है कि जिस गच्छ में स्थविरा (वृद्ध साध्वी) के चाद तरुणी और तरुणी के बाद स्थविरा-इस प्रकार सोने की व्यवस्था हो उसे ज्ञान-चारित्र का आधारभूत श्रेष्ठ गच्छ समझना चाहिए ।
जत्थ य थेरी तरुणी थेरी तरुणी य अंतरे सुयइ ।
गोअम ! तं गच्छवरं वरनाणचरित्तआहारं ॥ १२३ ॥ अन्त में गच्छाचार के आधार व उद्देश्य का उल्लेख व उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है: .
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