Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सप्तम प्रकरण
गच्छाचार
गच्छायार-गच्छाचार' प्रकीर्णक में १३७ गाथाएँ हैं। इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले साधु-साध्वियों के आचार का वर्णन है। यह प्रकीर्णक महानिशीथ, कल्प (बृहत्कल्प) तथा व्यवहार सूत्रों के आधार पर बनाया गया है।
प्रारम्भ में प्रकीर्णककार ने भगवान् महावीर को नमस्कार किया है एवं गच्छाचार की रचना का संकल्प किया है :
नमिऊग महावीरं तिअसिंदनमंसियं महाभागं ।
गच्छायारं किंची उद्धरिमो सुअसमुद्दाओ ।। १ ।। असदाचारी गच्छ में रहने से संसार-परिभ्रमण बढ़ता है जबकि सदाचारी गच्छ में रहने से धर्मानुष्ठान की प्रवृत्ति विकसित होती है ।
अत्थेगे गोयमा ! पाणी, जे उम्मग्गपइट्ठिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भमइ भवपरंपरं ।। २॥ जामद्धं जाम दिण पक्खं, मासं संवच्छरं पि वा।। सम्मग्गपट्ठिए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा ! ॥३॥ लीलाअलसमाणस्स, निरुच्छाहस्स वीमणं ।। पक्खाविक्खीइ अन्नेसिं, महाणुभागाण साहूणं ।। ४ ।। उज्जमं सव्वथामेसु, घोरवीरतवाइ।
लज्जं संकं अइकम्म, तस्स विरियं समुच्छले ।। ५ ।। आत्मकल्याण की साधना के लिए मुनि को आजीवन गच्छ में रहना चाहिए: १. (अ.) वानरर्षिविहित वृत्तिसहित-आगमोदय समिति, मेहसाना,
सन् १९२३. (आ) विजयराजेन्द्रसूरिकृत गुजराती विवेचनयुक्त-भूपेन्द्रसूरि जैन
साहित्य समिति, आहोर, वि० सं० २००२.
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