Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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एकादश प्रकरण
चन्द्रवेध्यक व वीरस्तव
चंदाविज्झय-चन्द्रवेध्यक अथवा चंदगविज्झ'-चन्द्रकवेध्य में १७५ गाथाएँ हैं। चन्द्रवेध्यक का अर्थ होता है राधावेद। जैसे सुसजित होते हुए भी अन्तिम समय में तनिक भी प्रमाद करनेवाला वेधक राधावेद का वेधन नहीं कर पाता वैसे ही मृत्यु के समय जरा भी प्रमाद का आचरण करने वाला साधक सर्वसाधनसम्पन्न होते हुए भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता। अतएव आत्मार्थी को सदैव अप्रमादी रहना चाहिए:
उप्पीलिया सरासणगहियाउहचावनिच्छयमईओ। विंधइ चंदगविज्झं ज्झायंतो अप्पणो सिक्खं ।। १२८ ।। जइ य करेइ पमायं थोपि य अन्नचित्तदोसेणं । तह कयसंधाणो विय चंदगविज्झं न विधेइ ॥ १२९॥ तम्हा चंदगविज्झस्स कारणा अप्पमाइणा निच्चं।
अविराहियगुणो अप्पा कायव्वो मुक्खमग्गंमि ।। १३० ॥ प्रस्तुत प्रकीर्णक में मरणगुणान्त सात विषयों का विवेचन है : १. विनय, २. आचार्यगुण, ३. शिष्यगुण, ४. विनयनिग्रहगुण, ५. ज्ञानगुण, ६. चरणगुण, ७. मरणगुण । एतद्विषयक गाथा इस प्रकार है:
विणयं आयरियगुणे सीसगुणे विणयनिग्गहगुणे य ।
नाणगुणे चरणगुणे मरणगुणे इत्थ वुच्छामि ॥३॥ वीरत्थव-वीरस्तव में ४३ गाथाएँ हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, यह प्रकीर्णक भगवान् महावीर की स्तुति के रूप में है। इसमें महावीर के विविध नामों का उल्लेख है।
१. केसरबाई ज्ञानमन्दिर, पाटन, सन् १९४१.
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