Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चत्तारि य कोडिसया सहि चेव य हवंति कोडीओ।
असीइं य तंदुलसयसहस्साणि हवंति त्ति मक्खायं ॥ ५५ ॥ आगे आचार्य ने काल के विभिन्न विभागों का स्वरूप समझाते हुए मानवजीवन की उपयोगिता का प्रतिपादन किया है तथा शरीर की रचना का विस्तृत विवेचन करते हुए विराग का उपदेश दिया है। स्त्रियों के विषय में आचार्य ने कहा है कि स्त्रियों का हृदय स्वभाव से ही कुटिल होता है। वे मधुर वचन बोलती हैं किन्तु उनका हृदय मधुर नहीं होता। स्त्रियाँ शोक उत्पन्न करने वाली हैं, बल नष्ट करने वाली हैं, पुरुषों के लिए वधशाला के समान हैं, लजा का नाश करने वाली हैं, अविनय-दम्भ-वैर-असंयम की जननी हैं। वे मत्त गज के समान कामातुर, व्याघ्री के समान दुहृदय, तृण से ढके हुए कूप के समान अप्रकाशहृदय, कृष्ण सर्प के समान अविश्वसनीय, वानर के समान चलचित्त, काल के समान निर्दय, सलिल के समान निम्नगामी, नरक के समान पीड़ा देनेवाली, दुष्ट अश्व के समान दुर्दम्य, किंपाक फल के समान मुखमधुर होती हैं आदि ।
.. अन्त में यह बताया गया है कि हमारा यह शरीर जन्म, जरा, मरण एवं वेदनाओं से भरा हुआ एक प्रकार का शकट (गाड़ी) है। इसे पाकर ऐसा कार्य करो जिससे समस्त दुःखों से मुक्ति मिले :
एयं सगडसरीरं जाइजरामरणवेयणाबहुलं । तह घत्तह काउं जे जह मुच्चह सव्वदुक्खाणं ।। १३९ ।।
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