Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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तृतीय प्रकरण
महाप्रत्याख्यान
महापच्चस्त्राण-महाप्रत्याख्यान' प्रकीर्णक में १४२ गाथाएँ हैं। इसमें प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग का विस्तृत व्याख्यान है ।
प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने तीर्थङ्करों, जिनों, सिद्धों एवं संयतों को प्रणाम किया है:
एस करेमि पणामं तित्थयराणं अणुत्तरगईणं ।
सव्वेसिं च जिणाणं सिद्धाणं संजयाणं च ।। १॥ इसके बाद पाप और दुश्चरित की निन्दा करते हुए उनका प्रत्याख्यान किया है तथा त्रिविध सामायिक को अङ्गीकार किया है । राग, द्वेष, हर्ष, दीनता, उत्सुकता, भय, शोक, रति, अरति, रोष, अभिनिवेश, ममत्व आदि दोषों का त्रिविध त्याग किया है। एकत्वभावना की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करते हुए आचार्य ने लिखा है:
इक्कोहं नस्थि मे कोई, न चाहमवि कस्सई । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासए ।। १३ ॥ इक्को उप्पज्जए जीवो, इक्को चेव विवजई । इक्कस्स होइ मरणं, इक्को सिज्झई नीरओ ॥ १४ ॥ एक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सिक्कओ समणुहवइ । इक्को जायइ मरइ परलोअं इक्कओ जाई॥ १५ ॥ इक्को मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।। १६ ॥ प्रस्तुत प्रकीर्णक में संसार-परिभ्रमण, पण्डितमरण, पञ्चमहाव्रत, वैराग्य, आलोचना, व्युत्सर्जन आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। अन्त में आचार्य ने बताया है कि धीर की भी मृत्यु होती है और कापुरुष की भी। इन दोनों में से
१. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, वि० सं० १९६२.
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