Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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भनुयोगद्वार
अनुमान:
अनुमान तीन प्रकार का है : पूर्ववत् , शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् ।'
पूर्ववत् अनुमान का स्वरूप समझाने के लिए सूत्रकार ने निम्न उदाहरण दिया है : जैसे किसी माता का कोई पुत्र बाल्यावस्था में अन्यत्र चला गया और युवा होकर अपने नगर में वापिस आया । उसे देख कर उसकी माता पूर्वदृष्ट अर्थात् पहले देखे हुए लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है ।' इसी को पूर्ववत् अनुमान कहते हैं ।
शेषवत् अनुमान पाँच प्रकार का है : कार्यतः, कारणतः, गुणतः, अवयवतः और आश्रयतः । कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतः अनुमान है। शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना इसी प्रकार का अनुमान है । कारणों से कार्यका ज्ञान कारणतः अनुमान कहलाता है । तंतुओं से पट बनता है, मिट्टी के पिण्डसे घट बनता है आदि उदाहरण इसी प्रकार के अनुमान के हैं । गुण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान करना गुणतः अनुमान है । कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से पुष्पों की परीक्षा आदि इसी प्रकार के अनुमान के उदाहरण हैं। अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना अवयवतः अनुमान है। शृङ्गों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दातों से हाथी का, दाढों से वराह-सूअर का ज्ञान इसी कोटि का अनुमानजन्य ज्ञान है। साधन से साध्य का अर्थात् आश्रय से आश्रयी का ज्ञान आश्रयतः अनुमान है। धूम्र से अग्नि का, बादलों से जल का, अभ्रविकार से वृष्टि का, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान इसी प्रकार का अनुमान है।
दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान के दो भेद हैं : सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट । किसी एक पुरुष को देखकर तद्देशीय अथवा तज्जातीय अन्य पुरुषों की आकृति • आदि का अनुमान करना सामान्यदृष्ट अनुमान का उदाहरण है। इसी प्रकार अनेक पुरुषों की आकृति आदि से एक पुरुष की आकृति आदि का भी अनुमान
... सू.६७-७२. २. माया पुत्तं जहा नट, जुवाणं पुणरागयं ।
काई पञ्चभिजाणेज्जा, पुन्वलिंगेण केणई ।।
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