Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास होती है। संख्या तीन प्रकार की है : संख्येयक, असंख्येयक और अनन्तक । संख्येयक के तीन भेद हैं : जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । असंख्येयक के भी तीन भेद हैं : परीतासंख्येयक, युक्तासंख्येयक और असंख्येयासंख्येक । इन तीनों के पुनः तीन-तीन भेद हैं : जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । इस प्रकार असंख्येयक के कुल ३४३=९ भेद हुए । अनन्तक तीन प्रकार का है : परीतानन्तक, युक्तानन्तक और अनन्तानन्तक । इनमें से परीतानन्तक और युक्तानन्तक के तीन-तीन भेद हैं : जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । अनन्तानन्तक के दो भेद हैं : जघन्य और मध्यम । इस प्रकार अनन्तक के कुल ३+३+२=८ भेद हुए । प्रस्तुत सूत्र में संख्येयक के तीन, असंख्येयक के नव एवं अनन्तक के आठ-इस प्रकार संख्या के कुल बीस भेदों का वर्णन किया गया है। यह वर्णन कल्पना व गणित दोनों से परिपूर्ण है। यहाँ तक भावप्रमाण का अधिकार है। इसके साथ ही प्रमाणद्वार भी समाप्त होता है । ___सामायिक के चार अनुयोगद्वारों में से प्रथम अनुयोगद्वार उपक्रम के छः भेद किए गये थे: १. आनुपूर्वी, २. नाम, ३. प्रमाण, ४. वक्तव्यता, ५. अर्थाधिकार और ६. समवतार । इनमें से आनुपूर्वी, नाम और प्रमाण का वर्णन हो
चुका । अव सूत्रकार वक्तव्यता आदि शेष भेदों का व्याख्यान करते हैं। वक्तव्यता:
वक्तव्यता तीन प्रकार की होती है : स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और उभयसमयवक्तव्यता। पंचास्तिकाय आदि स्वसिद्धान्तों का वर्णन करना स्वसमयवक्तव्यता है। अन्य मतों के सिद्धान्तों की व्याख्या करना परसमयवक्तव्यता है । स्व-पर उभय मतों की व्याख्या करना उभयसमयवक्तव्यता है । अर्थाधिकार :
जो जिस अध्ययन का अर्थ-विषय है वही उस अध्ययन का अर्थाधिकार है। उदाहरणार्थ आवश्यक सूत्र के छः अध्ययनों का सावद्ययोगविरत्यादिरूप विषय उनका अधिकार है ।
१. सू. १०१-२. २. विशेष विवेचन के लिए देखिए-उपाध्याय मात्मारामकृत हिन्दी अनुवाद, उत्तरार्ध, पृ. २३९-२५०.
३. देखिए-सू. १४ (प्रारंभ में ). ४. सू. १-३ ( वक्तव्यताधिकार एवं उसके बाद). ५. सू. ५.
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