Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
२५०
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साधु-साध्वियों को घास के ऐसे निर्दोष घर में जिसमें मनुष्य अच्छी तरह खड़ा नहीं रह सकता, हेमन्त-ग्रीष्मऋतु में रहना वर्जित है। यदि इस प्रकार के घर में अच्छी तरह खड़ा रहा जा सकता है तो उसमें साधु-साध्वी हेमन्त-ग्रीष्मऋतु में रह सकते हैं। यदि तृणादि का बनाया हुआ निर्दोष घर मनुष्य के दो हाथ से कम ऊँचा है तो वह साधु-साध्वियों के लिए वर्षाऋतु में रहने योग्य नहीं है। यदि इस प्रकार का घर मनुष्य के दो हाथ से अधिक ऊँचा है तो उसमें साधु-साध्वी वर्षाऋतु में रह सकते हैं।' पंचम उद्देश :
पंचम उद्देश में ब्रह्मापाय आदि दस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित बयालीस सूत्र हैं। ब्रह्मापायसंबन्धी प्रथम चार सूत्रों में आचार्य ने बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उस हस्तस्पर्श को सुखजनक माने तो उसे अब्रह्म की प्राप्ति होती है अर्थात् वह मैथुनप्रतिसेवन के दोष को प्राप्त होता है एवं उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। इसी प्रकार साध्वी के लिए भी उपयुक्त अवस्था में ( पुरुष के हाथ का स्पर्श होने पर ) चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। ___अधिकरणविषयक सूत्र में यह बताया है कि यदि कोई भिक्षु क्लेश को शान्त किये बिना ही अन्य गण में जाकर मिल जाए एवं उस गण के आचार्य को यह मालूम हो जाए कि यह साधु कलह करके आया हुआ है तो उसे पाँच रात-दिन का छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा अपने पास रखकर समझा-बुझा कर शान्त करके पुनः अपने गण में भेज देना चाहिए ।
संस्तृतासंस्तृतनिर्विचिकित्सविषयक सूत्रों में बताया गया है कि सशक्त अथवा अशक्त भिक्षु सूर्य के उदय एवं अनस्त के प्रति निःशंक होकर भोजन करता हो और बाद में मालूम हो कि सूर्य उगा ही नहीं है अथवा अस्त हो गया है एवं ऐसा मालूम होते ही भोजन छोड़ दे तो उसकी रात्रिभोजनविरति अखंडित रहती है । सूर्योदय एवं सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहार करने वाले की रात्रिभोजनविरति खंडित होती है ।
उद्गारप्रकृत सूत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को डकार ( उद्गार) आदि आने पर थूक कर मुख साफ कर लेने से रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता।
१.
उ० ४, सू० ३४.७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org