Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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भनुयोगद्वार उपक्रमद्वार:
उपक्रम छः प्रकार का है : १. नामोपक्रम, २. स्थापनोपक्रम, ३. द्रव्योपक्रम, ४. क्षेत्रोपक्रम, ५. कालोपक्रम और ६. भावोपक्रम : उवक्कमे छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-णामोवक्कमे, ठवणोवक्कमे, दव्वोवक्कमे, खेत्तोवक्कमे, कालोवक्कमे, भावोवक्कमे ।' अथवा उपक्रम के निम्नोक्त छ : भेद हैं : १. आनुपूर्वी, २. नाम, ३. प्रमाण, ४. वक्तव्यता, ५. अर्थाधिकार, ६. समवतार : अहवा उवक्कमे छविहे पण्णत्ते, तंजहा-आणुपूवी, नाम, पमाणं, वत्तव्वया, अत्थाहिगारे, समोयारे। आनुपूर्वी
आनुपूर्वी के दस भेद हैं: १. नामानुपूर्वी, २. स्थापनानुपूर्वी, ३. द्रव्यानुपूर्वी, ४. क्षेत्रानुपूर्वी, ५. कालानुपूर्वी, ६. उत्कीर्तनानुपूर्वी, ७. गणनानुपूर्वी, ८. संस्थानानुपूर्वी, ९. सामाचार्यानुपूर्वी, १०. भावानुपूर्वी । इन दस प्रकार की आनुपूर्वियों का सूत्रकार ने अतिविस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इस विवेचन में अनेक जैन मान्यताओं का समावेश किया गया है। उदाहरण के लिए कालानुपूर्वी का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार ने पूर्वानुपूर्वी के रूप में काल का इस प्रकार विभाजन किया है : समय, आवलिका, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्त्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटिताङ्ग, त्रुटित, अडडाङ्ग, अडड, अववांग, अवव, हुहुतांग, हुहुत, उत्पलांग, उत्पल, पद्माङ्ग, पद्म, नलिनाङ्ग, नलिन, अस्तिनिपुराङ्ग, अस्तिनिपुर, अयुताङ्ग, अयुत, नयुताङ्ग, नयुत, प्रयुताङ्ग, प्रयुत, चुलितांग, चुलित, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अव-सर्पिणी, पुद्गलपरावर्त, अतीतकाल, अनागतकाल, सर्वकाल । इसी प्रकार लोक
आदि के स्वरूप का भी संक्षेप में विचार किया गया है । १. सू. २ ( अध्ययनाधिकार ). २. सू. १४. ३. सूक्ष्मतम काल का नाम समय है। असंख्यात समय की एक आवलिका
होती है। इसी प्रकार श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव आदि का काल क्रमशः बढ़ता जाता है। अनन्त अतीत काल और भनन्त अनागत काल को मिलाने से सम्पूर्णकाल-सर्वकाल होता है। मूल भेदों के लिए देखिएकालानुपूर्वी का अधिकार, सू. ८७.
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