Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
करे, राजा द्वारा दीन-दुःखियों को दिये जाने वाले आहार में से किसी प्रकार की सामग्री ग्रहण करे उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है । नौवाँ उद्देश :
२८०
इस उद्देश में भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । निम्नलिखित क्रियाएँ इस प्रायश्चित्त के योग्य हैं :--
राजपिण्ड ( राजाओं के यहाँ का आहार ) ग्रहण करना, भोग करना, राजा के अन्तःपुर' में प्रवेश करना, राजा के आहारादि मँगवाना, राजा के यहाँ तैयार किये गये भोजन के किसी भी भाग का आहार ग्रहण करना ( १ . द्वारपाल का भाग, २. पशुओं का भाग, ३. भृत्यों का भाग, ४. बलि का भाग, ५. दास-दासियों का भाग, ६. घोड़ों का भाग, ७. हाथियों का भाग, ८. अटवी आदि को पार कर आने वालों का भाग, ९. दुर्भिक्षपीड़ितों का भाग, १०. दुष्कालपीडितों का भाग, ११. द्रुमक - भिखारियों का भाग, १२. ग्लान - - रोगियों का भाग, १३. वर्षा के निमित्त दान करने का भाग और १४. अतिथियों का भाग ), नगर में प्रवेश करते समय अथवा नगर से बाहर जाते समय राजा को देखने का विचार करना राजा की सर्वालंकार विभूषित स्त्रियों के पाँव तक देखने का विचार करना, राजसभा के विसर्जित होने के पूर्व आहारादि की गवेषणा के लिए निकलना, राजा के निवास स्थान के आसपास स्वाध्याय आदि करना, निम्नोक्त दस राज्याभिषेक की राजधानियों में राज्योत्सव होते समय महीने में दो-तीन बार प्रवेश करना, अथवा निकलना : चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कंपिल्ल, कौशाम्बी, मिथिला, हस्तिनापुर और राजगृह ।
दसवाँ उद्देश :
यह उद्देश भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है । जो साधु आचार्य को कठोर एवं कर्कश वचन कहे, आचार्य की आशातना -अवज्ञा करे, अनन्तकाय - मिश्रित ( कन्दमूल आदि से मिश्रित ) आहार करे, आधाकर्मिक ( साधु के
राजपिण्ड का उप
द्वारपाल आदि से चौदह भागों में से
१. निशीथ - विशेष चूर्णि में तीन प्रकार के अन्तःपुर बताये गये हैं: जीर्णान्तःपुर ( नष्टयौवनाओं के लिए), नवान्तःपुर ( विद्यमानयौवनाओं के लिए ) और कन्यकान्तःपुर (अप्राप्तयौवनाओं के लिए ) ।
२.
ऐसी स्त्रियों को पूरा देखना तो वर्जित है ही, उनके पाँव तक देखना भी
निषिद्ध है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org