Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३३.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास परिगृहीत होने के कारण मिथ्याश्रुतरूप हैं तथा सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक्त्वरूप से परिगृहीत होने के कारण सम्यकश्रु तरूप हैं। अथवा मिथ्यादृष्टि के लिए भी ये सम्यकश्रुतरूप हैं क्योंकि उसके सम्यक्त्व की उत्पत्ति में ये हेतु हैं।'
पूर्वोक्त द्वादशांगी गणिपिटक व्युच्छित्तिनय अर्थात् पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से सादि और सपर्यवसित-सान्त है तथा अव्युच्छित्तिनय अर्थात् द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अनादि एवं अपर्यवसित-अनन्त है ।
जिस सूत्र के आदि, मध्य और अन्त में कुछ विशेषता के साथ बार बार एक ही पाठ का उच्चारण हो उसे गमिक कहते हैं । दृष्टिवाद गमिकश्रुत है। गमिक से विपरीत कालिकश्रुत (आचारांग आदि) अगमिक हैं ।३
अंगबाह्य अर्थात् अनंगप्रविष्टश्रुत का परिचय देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि अंगबाह्य दो प्रकार का है : आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यक छः प्रकार का है : सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान | आवश्यकव्यतिरिक्त दो प्रकार का है : कालिक और उत्कालिक ।" उत्कालिकश्रुत अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे दशवकालिक, कल्पिकाकल्पिक, चुलकल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत, औपपातिक, राजप्रश्नीय (रायपसेणिय ), जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महाप्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार, देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, सूर्यप्रज्ञप्ति, पौरुषीमंडल, मण्डलप्रवेश, विद्याचरणविनिश्चय, गणिविद्या, ध्यानविभक्ति, मरणविभक्ति, आत्मविशोधि, वीतरागश्रुत, सहलेखनाश्रुत, विहारकल्प, चरणविधि, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान इत्यादि । कालिकश्रुत भी अनेक प्रकार का है : उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प( बृहत्कल्प), व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति, महल्लिकाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्गचूलिका, विवाहचूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, चैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, नागपरिज्ञापनिका, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुठिपका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, आशीविषभावना, दृष्टिविषभावना, स्वप्नभावना, महास्वप्नभावना, तेजोनिनिसर्ग आदि ८४ सहस्र प्रकीर्णक प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के हैं, संख्येय सहस्र प्रकीर्णक मध्यम जिनवरों के हैं तथा भगवान् वर्धमान के १४ सहस्र प्रकीर्णक हैं।
१. स्. ४०-१. २. सू. ४२. ३. सू. ४३. ४. जो सूत्र दिवस और रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहररूप काल में पढ़े ___ जाते हैं वे कालिक हैं । शेष उत्कालिक हैं ।
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