Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ पंडक, वातिक एवं क्लीब प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं। इतना ही नहीं, ये मुंडन, शिक्षा, उपस्थापना, सम्भोग (एक मण्डली में भोजन ), संवास इत्यादि के लिए भी अयोग्य हैं। ____ अविनीत, विकृतिपतिबद्ध व अव्यवशमित-प्राभृत (क्रोधादि शान्त न करने वाला) वाचना-सूत्रादि पढ़ाने के लिए अयोग्य हैं । विनीत, विकृतिविहीन एवं उपशान्तकषाय वाचना के लिए सर्वथा योग्य हैं।
दुष्ट, मूढ़ एवं व्युद्ग्राहित (विपरीत बोध में दृढ़) दुःसंज्ञाप्य हैं अर्थात् कठिनाई से समझाने योग्य हैं। ये उपदेश, प्रव्रज्या आदि के अनधिकारी हैं । अदुष्ट, अमूढ़ तथा अव्युद्ग्राहित उपदेश आदि के अधिकारी हैं।'
निर्ग्रन्थी ग्लान-रुग्न अवस्था में हो एवं किसी कारण से अपने पिता, भ्राता, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठे-बैठे तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त-गुरु प्रायश्चित्त का सेवन करना पड़ता है। इसी प्रकार रुग्ण निर्ग्रन्थ अपनी माता, भगिनी, पुत्री आदि का सहारा ले तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का सेवन करना पड़ता है।
निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को कालातिक्रान्त एवं क्षेत्रातिक्रान्त अशनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। प्रथम पौरुषी (पहर ) का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना अकल्प्य है। कदाचित् अनजान में इस प्रकार का आहार रह भी जाए तो उसे न खुद को खाना चाहिए, न अन्य साधु को देना चाहिए । एकान्त निर्दोष स्थान देखकर उसकी यतनापूर्वक परिष्ठापना कर देनी चाहिए-उसे सावधानी से रख देना चाहिए। अन्यथा चातुर्मासिक लघु प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। इसी प्रकार क्षेत्र की मर्यादा का उल्लंघन करने पर भी चातुमासिक लघु प्रायश्चित्त का सेवन करना पड़ता है।'
१. उ०४, सू० ४ ('पण्डकः' नपुंसकः, 'वातिको' नाम यदा स्वनिमित्ततोऽ
न्यथा वा मेहनं काषायितं भवति तदा न शक्नोति वेदं धारयितु यावन्न प्रतिसेवा कृता, 'क्लीवः' असमर्थः). विनय-पिटक के उपसम्पदा और प्रव्रज्या प्रकरण में प्रव्रज्या के लिए
अयोग्य व्यक्ति का विस्तार से विचार किया गया है। २. उ० ४, सू० ५-९. ३. उ० ४, सू० १०-१. ४. उ. ४, सू० १२-३.
५. उ० ४, सू० १४-५. ६. उ० ४, सू० १६-७.
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