Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
चतुर्थ प्रकरण
निशीथ wwwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv
निशीथ नामक छेदसूत्र में चार प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। ये प्रायश्चित्त साधुओं व साध्वियों के लिए हैं। प्रथम उद्देश में गुरुमासिक प्रायश्चित्त का अधिकार है। द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पंचम उद्देश में लघुमासिक प्रायश्चित्त का विवेचन है। छठे से लेकर ग्यारहवें उद्देश तक गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का अधिकार है। बारहवें उद्देश से उन्नीसवें उद्देश तक लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का प्रतिपादन किया गया है । बीसवें उद्देश में आलोचना एवं प्रायश्चित्त करते समय लगने वाले दोषों का विचार किया गया है एवं उनके लिए विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश में भी प्रायः इसी विषय पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में लगभग १५०० सूत्र हैं। कुछ सूत्रों का तो पुनरावृत्ति के भय से केवल सांकेतिक (संक्षिप्त) निर्देश कर दिया गया है। प्रत्येक उद्देश में पहले तत्तद् प्रायश्चित्त के योग्य कार्यों-दोषों का उल्लेख किया गया है एवं अंत में उन सब के लिए तत्सम्बद्ध प्रायश्चित्तविशेष का नामोल्लेख कर दिया गया है। पहला उद्देश:
प्रथम उद्देश में निम्नोक्त क्रियाओं के लिए गुरु-मास अथवा मास-गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त का विधान किया गया है :
हस्तकर्म करना, अंगादान (लिंग अथवा योनि) को काष्ठादि की नली में प्रविष्ट करना अथवा काष्ठादि की नली को अंगादान में प्रविष्ट करना, अंगुली आदि को १. (अ) W. Schubring, Leipzig, 1918; जैन साहित्य संशोधक
समिति, पूना, सन् १९२३. । (आ) अमोलकऋषिकृत हिन्दी अनुवादसहित-सुखदेवसहाय ज्वाला
प्रसाद जौहरी, हैदराबाद, वी० सं० २४४६. (इ) भाष्य व विशेषचूर्णिसहित-सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन्
१९५७-१९६०. २. विनय-पिटक के पातिमोक्ख विभाग में भिक्षु-भिक्षुणियों के विविध भपराधों के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान है।
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org