Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास थियों के लिए विदारित अपक्व ताल-प्रलम्ब लेना कल्प्य अर्थात् विहित है। तीसरे सूत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थों के लिए पक्क ताल-प्रलम्ब, चाहे विदारित हो अथवा अविदारित, ग्रहण करना कल्प्य है। चतुर्थ सूत्र में यह बताया है कि निर्ग्रन्थों के लिए अभिन्न-अविदारित पक्व ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना अकल्प्य है। पंचम सूत्र में यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थियों के लिए विदारित पक्क ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना कल्प्य है किन्तु जो विधिपूर्वक विदारित किया गया हो वही, न कि अविधिपूर्वक विदारित किया हुआ। ___ मासकल्पविषयक प्रथम सूत्र में साधुओं के ऋतुबद्धकाल अर्थात् हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु के आठ महीनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया गया है। साधुओं को सपरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं अबाहिरिक अर्थात् प्राचीर के बाहर की वसति से रहित (प्राचीरबहिर्वर्तिनी गृहपद्धति से रहित) निम्नोक्त सोलह प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु को छोड़कर अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक रहना अकल्प्य है :
१. ग्राम (जहाँ राज्य की ओर से अठारह प्रकार के कर लिए जाते हों)।
२. नगर (जहाँ अठारह प्रकार के करों में से एक भी प्रकार का कर न लिया जाता हो)।
३. खेट (जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो)। ४. कबेट (जहाँ कम लोग रहते हों)। ५. मडम्ब (जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो)। ६. पत्तन ( जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध हों)। ७. आकर ( जहाँ धातु की खाने हों)।
८. द्रोणमुख ( जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहाँ समुद्री माल आकर उतरता हो)।
९. निगम ( जहाँ व्यापारियों की वसति हो)। गया है। टीकाकार आचार्य क्षेमकीर्ति ने मूल शब्दों का अर्थ इस प्रकार किया है:-नो कल्प्यते-न युज्यते, निर्ग्रन्थानां-साधूनां, निर्ग्रन्थीनांसाध्वीनां, आम-अपक, तल:-वृक्षविशेषस्तत्र भवं वालं-तालफलं, प्रकर्षेण लम्बते इति प्रलम्बं-मूलं, तालं च प्रलम्बं च तालप्रलम्बं समाहार. द्वन्द्वः, अभिन्नं-द्रव्यतो अविदारितं भावतोऽव्यपगतजीवं, प्रतिग्रहीतुंआदातुमित्यर्थः।
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