Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास पार करने योग्य हैं-इस प्रकार की भाषा न बोले ( ३६)। यह कार्य कितना अच्छा किया, यह तेल कितना अच्छा पकाया, अच्छा हुआ यह वन काट दिया, अच्छा हुआ उसका धन चुरा लिया, अच्छा हुआ वह मर गया, इत्यादि भाषा न बोले (४१)। भिक्षु को चाहिए कि वह गृहस्थ को 'आओ बैठो', 'यहाँ आओ', 'यह करो', 'यहाँ सो जाओ', 'यहाँ खड़े रहो', 'यहाँ से चले जाओ' आदि न कहे (४७)। ज्ञान-दर्शनयुक्त तथा संयम और तप में रत साधु को ही साधु कहना चाहिए ( ४९) । जो भाषा पापकर्म का अनुमोदन करनेवाली हो, दूसरों के लिए पीड़ाकारक हो, ऐसी भाषा क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वशीभूत होकर साधु को नहीं बोलनी चाहिए (५४ )। आचारप्रणिधि : ___ मन, वचन और काय से छ: काय जीवों के प्रति अहिंसापूर्वक आचरण करना चाहिए (२-३)। संयतात्मा को चाहिए कि वह पात्र, कम्बल, शय्या, मल आदि त्यागने का स्थान (उच्चारभूमि), संथारा और आसन की एकाग्र चित्त से प्रतिलेखना करे (१७)। विष्ठा, मूत्र, कफ और नाक के मैल को निर्जीव प्रासुक स्थान में यतनापूर्वक रख दे (१८)। भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है, आँखों से बहुत कुछ देखता है, लेकिन देखा और सुना हुआ सब कुछ किसी के सामने कहना उचित नहीं (२०)। कानों को प्रिय लगने वाले शब्दों में रागभाव न करे, दारुण एवं कठोर स्पर्श को शरीर द्वारा सहन करे (२६)। क्षुधा, पिपासा, विषम भूमि में निवास, शीत, उष्ण, अरति और भय को अदीनभाव से सहन करे, क्योंकि देहदुःख को महाफल कहा गया है (२७)। सूर्य के अस्त होने के बाद सूर्योदय तक आहार आदि की मन से भी इच्छा न करे (२८)। जानेअजाने यदि कोई अधार्मिक कार्य हो जाय तो साधु को चाहिए कि वह तत्काल अपने मन को उधर जाने से रोके और दुबारा फिर वैसा काम न करे (३१)। जब तक बुढ़ापा पीड़ा नहीं देता, व्याधियाँ कष्ट नहीं पहुँचाती और इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण करे (३६)। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को नष्ट कर देता है, माया मित्रों का नाश करती है और लोभ सर्व विनाशकारी है ( ३८)। क्रोध को उपशम से, मान को मुदुता से,
होते थे तथा खूब खा-पीकर विकाल में पड़े सोते रहते थे (वही ५, ५८३८, पृ० १५४०)। मांसप्रचुर संखडि में मांस के पुंज काट-काट कर सुखाये जाते थे (भाचाराङ्ग २, पृ० २९७ अ-३०४)।
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