Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पंचम प्रकरण ओघनियुक्ति
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पिंडनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति (ओहनिज्जुत्ति) को भी चौथा मूलसूत्र माना जाता है। इसमें साधुसम्बन्धी नियम और आचार-विचार का प्रतिपादन किया है; बीच-बीच में अनेक कथाएँ दी हुई हैं। इसलिए पिंडनियुक्ति की भांति इसे भी छेदसूत्रों में गिना गया है। ओघनियुक्ति के कर्ता भद्रबाहु हैं। इस पर द्रोणाचार्य ने वृत्ति लिखी है। इसमें ८११ गाथाएँ हैं। नियुक्ति और भाष्य की गाथाएँ मिल-जुल गई हैं। इस ग्रन्थ में प्रतिलेखन द्वार, पिंड द्वार, उपाधिनिरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवना द्वार, आलोचना द्वार और विशुद्धि द्वार का प्ररूपण किया गया है। जैन श्रमण-संघ के इतिहास का संकलन करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। प्रतिलेखना:
प्रतिलेखना अर्थात् स्थान आदि का भली प्रकार निरीक्षण करना। इसके दस द्वार हैं:-अशिव, दुर्भिक्ष, राजभय, क्षोभ, अनशन, मार्गभ्रष्ट, मन्द, अतिशययुक्त, देवता और आचार्य (३-७)। देवादिजनित उपद्रव को अशिव कहते हैं। अशिव के समय साधु लोग देशान्तर में गमन कर जाते हैं। वे किनारीदार वस्त्र आदि का त्याग करते हैं और अशिवोपद्रव से पीड़ित कुलों में आहार ग्रहण नहीं करते (भाष्य १५-२२)। दुर्भिक्ष का उपद्रव होने पर गणभेद करके रोगी साधु को अपने साथ रखने का विधान है ( भाष्य २३)। राजा अमुक कारणों से कुपित होकर यदि साधु का भोजन-पान अथवा उपकरण १. द्रोणाचार्यविहित वृत्तिसहित-भागमोदय समिति, मेहसाना, सन् १९१९;
विजयदान सूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, सूरत, सन् १९५७. २. जैसे यदि कोई पंडितमन्य दुरात्मा राजा निर्ग्रन्थ दर्शन का निन्दक हो
भौर साधु राजपंडित को वाद में परास्त कर अपनी विद्या के बल से राजा . के सिर पर अपना पैर मारकर अदृश्य हो जाय तो यह राजा के कोप का कारण हो सकता है। देखिए-बृहत्कल्पभाष्य, ३,८८०.
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