Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास चिलिमिली और उपानह आदि का प्रयोजन बताया गया है (७२८-७४०)। उपधि के धारण करने में अपरिग्रहत्व (७४१-७४७), प्रमत्त भाव से हिंसा और अप्रमत्त भाव से अहिंसा का उल्लेख किया गया है (७५०-७५३)। अनायतन आदि
आगे अनायतन-वर्जन द्वार (७६२-७८४), प्रतिसेवना द्वार (७८५७८८), आलोचना द्वार ( ७८९-७९१) एवं विशुद्धि द्वार (७९२-८०४ ) का प्ररूपण है।
१. बृहत्कल्प-भाष्य (३, ८१७-८१९) में निम्नलिखित उपकरणों का
उल्लेख है-तलिका ( जूते), पुटक ( बिवाई पड़ने पर उपयोग में आते
हैं), वर्ध्न ( जूते सीने के लिए चमड़े का टुकड़ा), कोशक (नखभंग की . रक्षा के लिए अंगुस्ताना), कृत्ति (चर्म), सिक्कक (छींके के समान
उपकरण जिसमें कुछ लटका कर रखा जा सके), कापोतिका (जिसमें बाल साधु आदि को बैठा कर ले जाया जा सके), पिप्पलक (छुरी), सूची (सूई), आरा, नखहरणिका (नहरनी), औषध, नन्दीभाजन, धर्मकरक (पानी आदि छानने के लिए छन्ना), गुटिका आदि ।
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