Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दुर्वचन बोलने वाला, कपटी, धूर्त और अविनीत शिष्य संसार के प्रवाह में बहता फिरता है (३)। जो आचार्य और उपाध्यायों की सेवा-शुश्रूषा करते हैं उनकी शिक्षा जल से सींचे हुए वृक्षों की भाँति बढ़ती जाती है (१२)। शिष्य को चाहिए कि वह अपनी शय्या, स्थान और आसन को गुरु से नीचे रखे, विनयपूर्वक उनकी पाद-वन्दना करे और उन्हें अंजलि प्रदान करे (१७)। अविनीत शिष्य को विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती है, जिसने इन दोनों बातों को समझ लिया है वही शिक्षा को प्राप्त कर सकता है (२१)। विनय-समाधि-तीसरा उद्देश :
• धनादि की प्राप्ति की आशा से मनुष्य लोहे के तीक्ष्ण काँटों को सहने के लिए समर्थ होता है, किन्तु कानों में बाण की तरह चुभने वाले कठोर वचनों को जो सहन करता है वह पूज्य है (६)। गुणों के कारण साधु कहा जाता है और गुगों के अभाव में असाधु, इसलिए साधु के गुणों का ग्रहण और असाधु के गुणों का त्याग करो। इस प्रकार अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझ कर जो राग-द्वेष में समभाव धारण करता है वह पूज्य है (११)। विनय-समाधि-चौथा उद्देश :
‘विनय-समाधि के चार स्थान हैं-विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचारसमाधि (३)। विनयसमाधि के चार भेद हैं (५)। इसी प्रकार श्रुतसमाधि, तपसमाधि व आचारसमाधि के भी चार-चार भेद हैं (७-११)। सभिक्षु :
जिसकी ज्ञातपुत्र महावीर के वचनों में श्रद्धा है, जो छः काय के जीवों को अपने समान मानता है, पाँच महाव्रतों की आराधना करता है और पाँच आस्रवों का निरोध करता है वह भिक्षु है (५)। जो सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान, तप और संयम में दृढ़ विश्वास रखता है, तप द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मो को नष्ट करता है और मन, वचन और काय को सुसंवृत रखता है वह भिक्षु है (७)। जो इन्द्रियों को काँटे के समान कष्ट पहुँचाने वाले आक्रोश, प्रहार और तर्जना, तथा भय को उत्पन्न करनेवाले भैरव आदि शब्दों में समभाव रखता है वह भिक्षु है (११)। जो हाथों से संयत हो, पैरों से संयत हो, वचन से संयत हो, इन्द्रियों से संयत हो, अध्यात्म में रत हो, जिसकी आत्मा सुसमाहित हो और जो सूत्रार्थ को जानता हो वह भिक्षु है (१५)। जो जातिमद नहीं करता,
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