Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आया। दर्भ, कुश और बालुका से उसने वेदी बनाई, मंथनकाष्ठ द्वारा अरणि को घिसकर अग्नि पैदा की और उसमें समिधकाष्ठ डालकर उसे प्रज्वलित किया । अग्नि की दाहिनी ओर उसने सात वस्तुएँ स्थापित की-सकथ (एक उपकरण ), वल्कल, अग्निपात्र, शय्या (सिज्ज), कमण्डल, दण्ड और सातवीं में अपने आप को। फिर मधु, घी और चावलों द्वारा अग्नि में होम किया और चरु (बलि) पकाकर अग्निदेवता की पूजा की। उसके बाद अतिथियों को भोजन कराकर उसने स्वयं भोजन किया। इसी प्रकार उसने दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण और उत्तर में वैश्रमण की पूजा की।
फिर एक दिन उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-मैं वल्कल के वस्त्र पहन, पात्र ( कढिण) और टोकरी (सेकाइय) ले काष्ठमुद्रा से मुँह बाँध उत्तर दिशा की ओर महाप्रस्थान कर अभिग्रह धारण करूँगा कि जल, थल, दुर्ग, निम्न पर्वत, विषम पर्वत, गर्त अथवा गुफा में गिरकर या स्खलित होकर मैं फिर न उठूगा । यह सोचकर वह एक अशोक वृक्ष के नीचे गया, पात्र और टोकरी एक ओर रखे और उस स्थान को झाड़-पोंछकर वहाँ वेदी बनाई। फिर दर्भ और कलश हाथ में ले गंगा-स्नान करने गया। वहाँ से लौटकर अशोक वृक्ष के नीचे बालुका पर दर्भ और संश्लेष द्रव्य द्वारा वेदिका तैयार की, फिर अग्नि पैदा कर उसकी पूजा की और काष्ठमुद्रा से मुँह बाँध शान्तभाव से बैठ गया। इसी प्रकार सोमिल ने सप्तपर्ण, वट और उदुंबर वृक्षों के नीचे बैठकर अपना व्रत पूर्ण किया। __ चौथे अध्ययन में बताया है कि वाराणसी (बनारस ) नगरी में भद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम सुभद्रा था । सुभद्रा क्या होने के कारण बहुत दुःखी रहा करती थी। वह सोचा करती कि वे माताएँ कितनी धन्य हैं जिन्होंने अपनी कोख से सन्तान को जन्म दिया है, जो स्तन-दुग्ध की लोभी और मधुर आलाप करने वाली अपनी सन्तान को अपना दूध पिलाती हैं, और उसे अपने हाथों से उठा अपनी गोदी में बैठाकर उसकी तोतली बोली श्रवण करती हैं।
एक बार की बात है, सुव्रता नाम की आर्या समिति और गुप्ति पूर्वक विहार करती हुई बनारस में आई और उसने भिक्षा के लिए सुभद्रा के घर प्रवेश किया। सुभद्रा ने सुव्रता का विपुल अशन-पान आदि से सत्कार किया। तत्पश्चात् उसने आर्यिका से सन्तानोत्पत्ति के लिए कोई विद्या, मन्त्र, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषधि आदि माँगी। आर्यिका ने उत्तर दिया कि श्रमण निर्ग्रन्थियाँ
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