Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उत्तराध्ययन
ग्रहण करने के बाद अपने स्नेही जनों की याद कर-करके दुःख प्राप्त करोगे। अतएव गृहस्थाश्रम में रहकर मेरे साथ भोगों का सेवन करो। भिक्षाचरी का मार्ग बहुत दुर्लभ है।
पति-हे भद्रे ! जैसे साँप केचुली का परित्याग कर चला जाता है, वैसे ही ये मेरे दोनों पुत्र भोगों को छोड़कर जा रहे हैं, मैं क्यों न इनका अनुसरण करूँ ? ___अपने पति के मार्मिक वचन सुनकर ब्राह्मणी का हृदय भी परिवर्तित हो गया।
इस प्रकार पुरोहित को अपनी पत्नी और दोनों पुत्रों सहित संसार का त्याग करते हुए देख, जब राजा इकार ने पुरोहित का सब धन-धान्य ले लिया तो रानी राजा से कहने लगी-हे राजन् ! जो किसी के वमन किए हुए भोजन को ग्रहण करता है उसे कोई अच्छा नहीं कहता। तू ब्राह्मण द्वारा त्याग किए हुए धन को ग्रहण करना चाहता है, यह उचित नहीं है । हे राजन् ! यदि तुझे सारे जगत् का धन भी दे दिया जाय तो भी वह तेरे लिए पर्याप्त न होगा, उससे तेरी रक्षा नहीं हो सकती । हे राजन् ! कामभोगों का त्याग कर जब तू मृत्यु को प्राप्त होगा उस समय धर्म ही तेरे साथ चलेगा।
अन्त में राजा इषुकार और उसकी रानी ने भी संसार के विषयभोगों का त्याग कर दुःखों का नाश किया (१-५२)।' सभिक्षु
उत्तम भिक्षु के लक्षण ये हैं:-छिन्न ( मूषक आदि द्वारा वस्त्र के छेदन का ज्ञान), स्वर ( पक्षियों के स्वर का ज्ञान), भौम ( भूकंप आदि का ज्ञान ), अंतरिक्ष (गंधर्वनगर आदि का ज्ञान), स्वप्न (स्वप्नशास्त्र), लक्षण ( लक्षणशास्त्र), दंड ( दंडलक्षण), वास्तुविद्या, अंगविकार (आँख आदि का फरकना) आदि से अपनी जीविका न करे (७)। मन्त्र, जड़ी-बूटी आदि उपचारों को उपयोग में लाना तथा वमन, विरेचन और धूप देना, अंजन बनाना, १. १२, २६, ४४, ४८ गाथाओं के साथ हत्थिपाल जातक की ४, १५, १७,
२० गाथाओं की तुलना कीजिए। २. दीघनिकाय (१, पृ० ९) में अंग, निमित्त, उप्पाद, सुपिन, लक्षण और
मूसिकछिन्न का उल्लेख है।
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