Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
न उससे सम्भाषण ही करे ( २६ ) । भिक्षा के समय साधु को दाता के न बहुत दूर और न बहुत पास ही खड़े होना चाहिए। उसे ऐसे स्थान पर खड़े होना चाहिए, जहाँ दूसरे श्रमण उसे देख न सकें और जहाँ दूसरों को लाँघकर न जाना पड़े ( ३३ ) | यदि कदाचित् आचार्य क्रुद्ध हो जायँ तो उन्हें प्रेमपूर्वक प्रसन्न करे । हाथ जोड़ कर उनकी क्रोधाग्नि को शान्त करे और उन्हें विश्वास दिलाए कि फिर वह कभी वैसा काम न करेगा ( ४१ ) ।
परीषह :
परीषों को जानकर, जीतकर और उनका पराभव करके, भिक्षाटन को जाते समय यदि भिक्षु को परीषहों का सामना भी करना पड़ जाय तो वह अपने संयम का नाश नहीं करता । श्रमण भगवान् काश्यपगोत्रीय महावीर ने २२ परीषह बताये हैं- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, अचेल ( वस्त्र रहित होना ), अरति ( अप्रीति ), स्त्री, चर्या ( गमन ), निषद्या ( बैठना ), शय्या, आक्रोश ( कठोर वचन ), वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल ( मल ), सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन ।
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तप के कारण बाहु, जंघा आदि काकजंघा के समान कृश क्यों न हो जायँ और भले ही शरीर की नस-नस दिखाई देने लगे। फिर भी भोजन - पान की मात्रा को जाननेवाला भिक्षु संयम में दीनवृत्ति नहीं करता ( ३ ) । तृषा से पीड़ित होने पर भी अनाचार से भयभीत, संयम की लज्जा रखने वाला भिक्षु शीत जल की जगह उष्ण जल का ही सेवन करे ( ४ ) । शीत वायु से रक्षा करने वाला कोई घर नहीं, और न शरीर की रक्षा करने वाला कोई वस्त्र ही है, फिर भी भिक्षु कभी आग में तापने का विचार मन नहीं लाता ( ७ ) । गर्मी से व्याकुल संयमी साधु स्नान की इच्छा न करे, न अपने शरीर पर जल का
में
१. तुलना -पाद और जंघा जिनके सूख गये हैं, पेट कमर से हड्डी-पसली निकल आई है, कमर की हड्डियाँ रुद्राक्ष की एक-एक करके गिनी जा सकती हैं, छाती गंगा की तरंगों होती है, भुजाएँ सूखे हुए सर्पों के समान लटक गई हैं, बदन मुरझाया हुआ है, आँखें अन्दर को गड़ चला जाता है, बैठकर उठा नहीं जाता और खुलती - अनुत्तरोववाइयदसाओ, पृ० ६६, ९८५, १०५४ - ६ भी देखना चाहिए ।
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लग गया है,
माला की तरह
के समान मालूम
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सिर कांप रहा है,
बड़ी कठिनता से
लिए जबान नहीं
गई हैं। बोलने के थेरगाथा ५८०, ९८२-८३,
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