Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निरयावलिका
१३५ वह अपने यानविमान में बैठकर उनके दर्शनार्थ आया। यहाँ चन्द्र के पूर्वभव का वर्णन है।
दूसरे अध्ययन में चन्द्र की जगह सूर्य का वर्णन है ।
तीसरे अध्ययन में शुक्र महाग्रह का वर्णन है । इसमें सोमिल ब्राह्मण की कथा इस प्रकार है:
वाराणसी नगरी में सोमिल नाम का ब्राह्मण रहता था। वह ऋग्वेद आदि शास्त्रों का पंडित था। एक बार नगरी के अंबसाल वन में पार्श्वनाथ पधारे । सोमिल उनके दर्शन के लिये गया और उनका उपदेश श्रवण कर श्रावक हो गया।
कालान्तर में सोमिल के विचारों में परिवर्तन हुआ और वह मिथ्यात्वी बन गया। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैं उच्च कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, मैंने व्रतों का पालन किया है, वेदों का अध्ययन किया है, पत्नी ग्रहण की है, पुत्रोत्पत्ति की है, ऋद्धियों का सम्मान किया है, पशुओं का वध किया है, यज्ञ किये हैं, दक्षिणा दी है, अतिथियों की पूजा की है, अग्निहोम किया है, उपवास किये हैं। ऐसी हालत में मुझे आम, मातुलिंग (बिजौरा ), बेल, कपित्थ (कैथ), चिंचा (इमली) आदि के बाग लगाने चाहिये। वृक्षों का आरोपण करने के पश्चात् उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-मैं क्यों न अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुंब का भार सौंप तथा अपने मित्र और बंधुजनों की अनुमति प्राप्त कर, तापसों के योग्य लोहे. की कड़ाही और कलछी तथा तांबे के पात्र लेकर गंगातटवासी वानप्रस्थ तपस्वियों की भाँति विहार करूँ। तत्पश्चात् वह दिशाप्रोक्षित तापसों से दीक्षा लेकर छहम-- छह तप स्वीकार करता हुआ भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्याभिमुख हो आतापन भूमिा में तपश्चरण करने लगा। पहले छहम तप के पारणा के दिन वह आतापन भूमि से चल वल्कल के वस्त्र धारण कर अपनी कुटी में आया और अपनी टोकरी लेकर पूर्व दिशा की ओर चला । यहाँ उसने सोम महाराज की पूजा की और कंद, मूल, फल आदि से टोकरी भर वह अपनी कुटी में आया । वहाँ उसने वेदी को लीप-पोतकर शुद्ध किया और फिर दर्भ और कलश को लेकर गंगा-स्नान के लिये गया। इसके बाद आचमन कर, देवता और पितरों को जलांजलि दे तथा दर्भ और पानी का कलश हाथ में ले अपनी कुटी में
1. यहाँ होत्तिय, पोत्तिय, कोत्तिय, जन्नई आदि वानप्रस्थ साधुनों का
उल्लेख है।
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