Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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राजप्रश्नीय
केशी-यदि वह पुरुष तुमसे कहे कि स्वामी ! जरा ठहर जाओ, मैं अपने मित्र और जाति-बिरादरी के लोगों से कह आऊँ कि कामवासना के वशीभूत होने के कारण मुझे यह मृत्युदण्ड मिला है, यदि आप लोग भी ऐसा करेंगे तो मेरी ही तरह मृत्युदण्ड के भागी होंगे तो क्या तुम उस पुरुष की बात सुनोगे ?
पएसी-नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह पुरुप अपराधी है ?
केशी-इसी तरह भले ही तुम अपने दादा के प्रिय रहे हो, लेकिन वह नरक में महान् दुःख भोगते रहने के कारण, इच्छा होने पर भी मनुष्यलोक में नहीं आ सकता । अतएव जीव और शरीर भिन्न हैं।
(ख) पएसी-देखिये, मैं दूसरा उदाहरण देता हूँ। मेरी दादी परम धार्मिक थी । अपने शुभ कर्मों से पुण्योपार्जन करने के कारण आपके कथनानुसार वह स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी का लाडला पोता था। ऐसी हालत में उसे मुझे आकर कहना चाहिये था कि पुण्योपार्जन के कारण वह स्वर्ग में उत्पन्न हुई है और इसलिए मुझे भी दान आदि द्वारा पुण्योपार्जन कर स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। लेकिन अभी तक तो मुझे अपनी दादी के पास से कोई समाचार नहीं मिला, इसलिए जीव और शरीर भिन्न नहीं हैं क्योंकि उसके शरीर के साथ ही उसका जीव भी नष्ट हो गया।
केशी-कल्पना करो कि तुम स्नान कर, आर्द्र वस्त्र धारण कर, हाथ में कलश और धूपदान लिए देवकुल में दर्शन के लिए जा रहे हो और इतने में कोई पाखाने में बैठा हुआ पुरुष तुम्हें बुलाये कि स्वामी ! थोड़ी देर के लिए यहाँ आकर बैठिये तो क्या तुम उसकी बात सुनोगे ?
पएसी-नहीं, मैं यह बात कभी नहीं सुनूँगा,एक क्षण के लिए भी मैं पाखाने में नहीं जाऊँगा।
केशी-इसी प्रकार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ देव इच्छा होने पर भी मनुष्य लोक में नहीं आ सकता, क्योंकि वह स्वर्ग के कामभोगों का त्याग नहीं करना चाहता । अतएव जीव और शरीर भिन्न हैं ( १६६-१७०)। दूसरी युक्ति
(क) पएसी-अपने पक्ष के समर्थन में मैं एक और उदाहरण देता हूँ। कल्पना कीजिए कि नगर का कोतवाल किसी चोर को पकड़ कर मेरे पास लाया । मैंने उसे जीवित अवस्था में ही लोहे की कुंभी में डाल कर ऊपर से ढक्कन लगा दिया। फिर उसे लोहे और सीसे से बन्द करके वहाँ विश्वस्त सैनिकों को तैनात कर दिया । कुछ समय बाद मैंने कुंभी को खुलवा कर देखा । उसमें कहीं कोई
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