Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जीवाजीवाभिगम रूपकाणि, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-टीका, पृ० २३), रूपकसंघाटक, पक्ष ( पख), पक्षबाहु ( पखबाह ), वंश (धरन) वंशकवेल्लुय (खपड़ा), पट्टिका ( पटिया ), अवघाटनी (छाजन ) और उपरिपुंछनी ( टाट) से शोभित है। इसके चारों ओर हेमजाल, किंकिणिजाल, मणिजाल, पद्मवरजाल लटक रहे हैं। इसके चारों ओर सुवर्णपत्र से मंडित तथा हार और अर्धहार से शोभित सुनहले झूमके. दिखाई दे रहे हैं जो वायु से मन्द-मन्द हिलते हुए ध्वनि कर रहे हैं। पद्मघरवेदिका के बीच घोड़े, हाथी, नर, किंनर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व और वृषभ के युग्म बने हुए हैं। यहाँ घोड़ों आदि की पंक्तियां तथा पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चंपकलता, वनलता, वासंतीलता, अतिमुक्तकलता, कुन्दलता और श्यामलता चित्रित की हुई हैं। बीच-बीच में अक्षय स्वस्तिक बने हुए हैं । वेदिका के नीचे, ऊपर, और चारों ओर अति सुन्दर पुष्प शोभित हो रहे हैं ( १२५)।
पद्मवरवेदिका में बाहर एक सुन्दर वनखंड है ( १२६)। इसमें अनेक वापियाँ और पुष्करिणियाँ बनी हुई हैं। इनके सोपान नेम ( दहलीज), प्रतिष्ठान (नीव) आदि से युक्त हैं और उनके सामने मणिमय खंभों पर विविध ताराओं से खचित और ईहामृग, वृषभ आदि से चित्रित, विद्याधरों के युगल से शोभित तोरण लटके हुए हैं। तोरणों के ऊपर आठ मंगल स्थापित हैं, विविध रंग की ध्वजाएँ लटकी हुई हैं तथा छत्र, पताका, घंटे, चामर, और कमल लगे हुए हैं। वनखंड में आलिघर (आलि-एक वनस्पति, टीकाकार ), मालिघर ( मालि—एक वनस्पति, टीकाकार), कदलीघर, लताघर, अच्छणघर (आराम करने का घर), प्रेक्षणघर, स्नानघर, प्रसाधनघर, गर्भघर ( भीतर का घर), मोहनघर, शालघर ( बरामदे वाला घर), जालघर (खिड़कियों वाला घर), कुसुमघर, चित्रघर, गंधर्वघर (जहाँ गीत, नृत्य आदि का अभ्यास किया जाता है ) और आदर्शघर ( शीशमहल) बने हुए हैं। वनखंड में जातिमंडप, यूथिकामण्डप, मल्लिकामंडप, नवमालिकामंडप, वासंतीमंडप, दधिवासुका ( वनस्पतिविशेषः, टीकाकार ), सूरिल्लि ( वनस्पति, टोकाकार ), तंबोलीमंडप, मृतीकामंडप, नागलतामंडप, अतिमुक्तकलतामंडप, अकोय (वनस्पति, टीकाकार) मंडप, मालुकामंडप और श्यामलतामंडप बने हुए हैं। इनमें बैठने के लिये हसासन, क्रौंचासन, गरुडासन, उन्नत-आसन, प्रणतआसन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्षासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिकआसन बिछे हुए हैं ( १२७)।
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