Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पंचम प्रकरण सूर्यप्रज्ञप्ति व चन्द्रप्रज्ञप्ति
सूर्यप्रज्ञप्ति जैन आगमों का पाँचवाँ उपांग है। इस पर आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी थी जो अनुपलब्ध है। मलयगिरि ने इस उपांग पर विशद टीका लिखी है जिससे ग्रन्थ को समझने में काफी सहायता मिलती है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का १०८ सूत्रों में विस्तार से वर्णन किया गया है । इसमें बीस प्राभृत हैं
सूर्य के मण्डलों की गतिसंख्या, सूर्य का तिर्यक् गमन, प्रकाश्य क्षेत्र का परिमाण, प्रकाशसंस्थान, लेश्याप्रतिघात , प्रकाश का अवस्थान, सूर्यावारक, उदयसंस्थिति, पौरुषीच्छाया का प्रमाण, योग का स्वरूप, संवत्सरों का आदि अन्त, संवत्सर के भेद, चन्द्रमा की वृद्धि और ह्रास, ज्योत्स्ना का प्रमाण, शीघ्रगति और मन्दगति का निर्णय, ज्योत्स्ना का लक्षण, च्यवन और उपपात, चन्द्र-सूर्य आदि का उच्चत्व-मान, चन्द्र-सूर्य का परिमाण, और चन्द्र आदि का अनुभाव । बीच-बीच में ग्रन्थकार ने इस विषय की अन्य मान्यताओं का भी उल्लेख किया है। इन प्राभृतों का वर्णन गौतम इन्द्रभूति और महावीर के प्रश्नोत्तरों के रूप में किया गया है। प्रथम प्राभृत: _प्रथम प्राभृत में आठ अध्याय (प्राभृत-प्राभृत ) हैं:-१. दिन और रात्रि के मुहूर्तों का वर्णन (८-११)। २. अर्धमण्डल की व्यवस्था का वर्णनदो सूर्यों में से दक्षिण दिशा का सूर्य दक्षिणार्ध मंडल का, और उत्तर दिशा १. (अ) मलयगिरिविहित वृत्तिसहित-आगमोदय समिति, बम्बई,
सन् १९१९. (आ) रोमन लिपि में मूल-J. F. Kohl, Stuttgart, 1937.
(इ) हिन्दी अनुवादसहित-अमोलक ऋषि, हैदराबाद, वी० सं २४४५. २. भास्कर ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि और ब्रह्मगुप्त ने अपने स्फुटसिद्धान्त में
जैनों की दो सूर्य और दो चन्द्र की मान्यता का खंडन किया है। लेकिन
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