Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तथा आकाश में देवताओं का नृत्य देखकर वे बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा कि शीघ्र ही कोई आपत्ति आनेवाली है। इतने में तिमिसगुहा के उत्तर द्वार से बाहर निकल कर भरत चक्रवर्ती अपनी सेना सहित वहाँ आ पहुँचा । दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ और किरातों ने भरत की सेना को मार भगाया (५६ ) । अपनी सेना की पराजय देखकर सुषेण सेनापति अश्वरत्न पर आरूढ़ हो और असिरत्न को हाथ में ले किरातों की ओर बढ़ा और उसने शत्रुसेना को युद्ध में हरा दिया (५७)। किरात सिन्धु नदी के किनारे बालुका के संस्तारक पर ऊर्ध्वमुख करके वस्त्र रहित हो लेट गये और अष्टम भक्त से अपने कुलदेवता मेघमुख नामक नागकुमारों की आराधना करने लगे। इससे नागकुमारों के आसन कम्पायमान हुए और वे शीघ्र ही किरातों के पास आ कर उपस्थित हुए। अपने कुलदेवताओं को देख किरातों ने उन्हें प्रणाम किया और अय-विजय से बधाई दी। उन्होंने कुलदेवताओं से निवेदन किया-हे देवानुप्रियो ! यह कौन दुष्ट हमारे देश पर चढ़ आया है, आप लोग इसे शीघ्र ही भगा दें। नागकुमारों ने उत्तर दिया-यह भरत नामक चक्रवर्ती है जो किसी भी देव, दानव, किन्नर किंपुरुष, महोरग या गंधर्व से नहीं जीता जा सकता और न किसी शस्त्र, अग्नि, मंत्र आदि से ही इसकी कोई हानि की जा सकती है, फिर भी तुम लोगों के हितार्थ वहाँ पहुँच कर हम कुछ उपद्रव करेंगे। इतना कह कर नागकुमार विजयरकंधावार निवेश में आकर मूसलाधार वर्षा करने लगे (५८) । लेकिन भरत ने वर्षा की कोई परवाह न की और अपने चर्मरत्न पर सवार हो, छत्ररत्न से वर्षा को रोक मणिरत्न के प्रकाश में सात रात्रियाँ व्यतीत कर दी (५९-६०)।
देवों को जब इस उपद्रव का पता लगा तो वे मेघमुख नागकुमारों को डाँट-डपट कर कहने लगे-क्या तुम नहीं जानते कि भरत चक्रवर्ती अजेय है, फिर भी तुम लोग वर्षा द्वारा उपद्रव कर रहे हो ? यह सुनकर नागकुमार भयभीत हो गये और उन्होंने किरातों के पास पहुँच कर उन्हें सब हाल सुनाया। तत्पश्चात् किरात लोग आर्द्र वस्त्र धारण कर, श्रेष्ठ रत्नों को ग्रहण कर भरत की शरण में पहुँचे और अपराधों की क्षमा माँगने लगे। रत्नों को ग्रहण कर भरत ने किरातों को अभयदानपूर्वक सुख से रहने की अनुमति प्रदान की (६१)।
तत्पश्चात् भरत ने क्षुद्रहिमवंत पर्वत के पास पहुँच क्षुद्रहिमवंतगिरिकुमार की आराधना कर उसे सिद्ध किया (६२)। फिर ऋषभकूट पर्वत पर पहुँच वहाँ काकणिरत्न से पर्वत की भित्ति पर अपना नाम अंकित किया। उसके बादः
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