Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सूर्य पूर्व-दक्षिण में उदित होता है वह मेरु के दक्षिण में स्थित भरत आदि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है, तथा पश्चिम-उत्तर में उदित होनेवाला सूर्य मेरु के उत्तर में स्थित ऐरावत आदि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है (२९)। नौवें प्राभूत में बताया गया है कि सूर्य के उदय और अस्त के समय ५९ पुरुषप्रमाण छाया दिखाई देती है ( ३०-३१) । इन प्राभूतों में अनेक मतान्तरों का उल्लेख है। दशम प्राभृत:
दसवें प्राभृत में २२ अध्याय हैं जिनमें निम्न विषयों का वर्णन है-नक्षत्रों में आवलिकाओं का क्रम; मुहूर्त की संख्या; पूर्व, पश्चात् और उभय भाग; नक्षत्रों का योग; नक्षत्रों के कुल; किन नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग होने पर पूर्णमासी
और अमावस होती है; चन्द्रयोग की अपेक्षा पूर्णमासी और अमावस का होना%3B नक्षत्रों का आकार; नक्षत्रों में ताराओं की संख्या; कौन से नक्षत्रों के अस्त होने से दिन और रात होते हैं; चन्द्र के परिभ्रमण करने का मार्ग; नक्षत्रों के देवता-अभिजित् नक्षत्र का ब्रह्म, श्रवण नक्षत्र का विष्णु, धनिष्ठा का वसुदेव, भरणी का यम, कृतिका का अग्नि आदि; नक्षत्रों के मुहूर्तों के नाम; दिन और रात्रि के नाम; तिथियों के भेद ( ३३-४९ )।
सोलहवें अध्याय में नक्षत्रों के गोत्रों का उल्लेख है-मोग्गल्लायण (अभिजित् ), संखायण (श्रवण ), अग्गभाव ( धनिष्ठा ), कण्णलायन ( शतभिषज), जोउकण्णिय ( पुव्वापोडवता), धणंजय ( उत्तरापोठ्ठवता), पुस्सायण (रेवती),
अस्सायण ( अश्विनी), भग्गवेस ( भरिणी), अग्गिवेस ( कृत्तिका ), गौतम (रोहिणी ), भारद्दाय (संस्थान), लोहिच्चायण ( आर्द्रा ), वासिठ्ठ ( पुनर्वसु ), उमज्जायण (पुष्य), मंडवायण (अश्लेषा), पिंगायण ( महानक्षत्र ), गोवल्लायण (पूर्वाफाल्गुनी), काश्यप ( उत्तराफाल्गुनी), कोसिय ( हस्त), दब्भिय (चित्रा), चामरच्छायन (स्वाति), सुगायण (विशाखा), गोलव्यायण ( अनुराधा), तिगिच्छायण ( ज्येष्ठा), कच्चायण (मूल), वज्झियायण (पूर्वाषाढ़), वग्घावच्च ( उत्तराषाढ़') (५०)। १. स्थानांग (पृ० ३६९ ) में सात मूल गोत्रों का उल्लेख है-काश्यप,
गौतम, वत्स, कुत्स, कौशिक, मण्डव, वाशिष्ट । इनके अवान्तर भेद इस प्रकार हैं:
काश्यप-कासव, संदेल्ल, गोल्ल, वाल, मुंजइण, पव्वपेच्छइण, वरिसकण्ह।
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