Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिया। वर्षा ऋतु को छोड़कर हेमंत और ग्रीष्म में वे गाँव में एक रात और नगर में पाँच रात व्यतीत करते हुए सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान तथा सम्पत्तिविपत्ति में समभाव रखते हुए विहार करने लगे। विहार करते-करते वे पुरिमताल नगर के शकटमुख उद्यान में आये और वहाँ न्यग्रोध वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हो गये। इस समय उन्हें केवलज्ञान-दर्शन की प्राप्ति हुई और वे केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहे जाने लगे। श्रमण निग्रंथ और निग्रंथिनियों को पाँच महाव्रत और छः जीवनिकायों का उपदेश देते हुए वे अपने गणधरों तथा श्रमणश्रमणियों-आर्य-आर्यिकाओं के साथ विहार करने लगे (३१)। कालांतर में अनेक श्रमणों के साथ अष्टापद ( कैलाश) पर्वत पर घोर तपश्चरण कर उन्होंने सिद्धि प्राप्त की। ऋषभदेव के निर्वाण का समाचार पाकर इन्द्र आदि देवों ने गोशीर्ष चन्दन की चिता बनाई । क्षीरोद समुद्र के जल से तीर्थङ्कर के शरीर को स्नान कराया, चन्दन का अनुलेप किया और उसे वस्त्रालंकार से विभूषित किया । फिर उसे शिबिका में रख चिता पर स्थापित किया । अग्निकुमार देवों ने चिता में आग दी, वायुकुमार देवों ने आग को प्रज्वलित किया और शरीर के भस्म हो जाने पर मेघकुमार देवों ने उसे जलवृष्टि द्वारा शान्त किया। उसके बाद देवों ने तीर्थकर की अस्थियों पर चैत्य-स्तूप स्थापित किये। इन्द्र आदि देवों ने आठ दिन तक, परिनिर्वाण महोत्सव मनाया। तत्पश्चात् अपनी-अपनी सुधर्मा सभाओं के चैत्य-स्तम्भों में गोलाकार भाजनों में तीर्थंकर की अस्थियों को स्थापित कर वे उनकी पूजा-अर्चना द्वारा समय यापन करने लगे (३३)।
दुष्षमा-सुषमा नामक चौथे काल में अरहंत, चक्रवर्ती और दशार वंशों में २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और ९ वासुदेव उत्पन्न हुए।
दुष्पमा नामक पाँचवें काल में कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक १०० वर्ष से कुछ अधिक आयु होगी। इस काल के पिछले तिहाई १. रामायण ( ६. १०१, ११४ आदि ) में कहा है कि रावण की मृत्यु होने
पर सुवर्ण की शिबिका बनाई गई, मृतक को क्षौम वस्त्र पहनाये गये, रंगविरंगी पताकाएँ लगाई गईं और फिर बाजे-गाजे के साथ अर्थी निकाली गई । आग्नेय दिशा में चिता के पास एक वेदी निर्मित की गई और वहाँ एक बकरे का वध किया गया। तत्पश्चात् चिता पर खील बिखेर कर उसमें आग लगा दी गई। प्रेतवाहन के लिये दूर्वा और जल से मिश्रित तिल भूमि पर बिखेरे गये। इसके बाद मृतक को जल-तर्पण कर नर-नारी अपने घर लौट गये । भौर भी देखिए-महाभारत १. १३४, १३६.
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