Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दिया । मण्डप के चारों ओर बाजे बज रहे थे और देवांगनाएँ इधर-उधर चहलकदमी कर रही थीं ( ४१ ) ।
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मण्डप के बीचोंबीच प्रेक्षकों के बैठने का स्थान ( अक्खाडग ) बनाया । इसमें एक पीठिका स्थापित की । उस पर एक सिंहासन रखा । यह सिंहासन चक्कल (पायों के नीचे के हिस्से ), सिंह, पाद ( पाये ), पादशीर्षक ( पायों के ऊपर के कंगूरे ), गात्र ( ढांचा ) और संधियों से युक्त और ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, हाथी, मगर आदि के चित्रों से शोभित था, उसके आगे का पादपीठ मणियों से खचित था । पादपीठ के ऊपर रखा हुआ मसूरग ( गाल रखने की मसूर के समान चपटी मुलायम गद्दी ) एक कोमल वस्त्र से ढका था । सिंहासन के ऊपर एक रजस्त्राण था और इस रजस्त्राण के ऊपर दुकूल बिछाया गया था । सिंहासन त वर्ण के एक विजयदृष्य से शोभित था । उसके बीच में एक अंकुश (अंकुश के आकार की खूँटी ) टँगा था जिसमें मोतियों की एक बड़ी माला लटक रही थी; इस माला के चारों तरफ चार मालाएँ थीं । ये मालाएँ सोने के अनेक लंबूसगों (झूमकों) से शोभित थीं और अनेक हारों, अर्धहारों तथा रत्नों से चमक रही थीं। इस सिंहासन पर सूर्याभदेव की पटरानियों, उसके कुटुम्ब परिवार तथा आभ्यन्तर परिषद् के और सेनापति आदि के बैठने के लिए भद्रासन चिछे हुए थे ( ४२-४४ )।
विमान के सज्जित हो जाने पर आभियोगिक देवों ने सूर्याभदेव को सूचना दी। सूचना पाकर सूर्याभदेव परम हर्षित हो अपनी पटरानियों, गंधर्वों और नाट्यकारों आदि के साथ सोपान द्वारा विमान में चढ़, सिंहासन पर विराजमान हो गया । अन्य देवता भी अपने-अपने आसनों पर यथास्थान बैठ -गये ( ४५-४६ ) ।
विमान के आगे सबसे पहले आठ मंगल स्थापित किए गए। उसके बाद पूर्ण कलश, भृंगार ( झारी), छत्र और चामर सजाये गये । विजय वैजयन्ती नाम की पताका फहराई गई । तत्पश्चात् दण्ड और छत्र से सुशोभित श्वेत छत्र तथा पादपीठ और पादुकाओं की जोड़ी सहित सिंहासन को बहुत से देव उठाये चलते थे । उसके बाद पताकाएँ और इन्द्रध्वज' थे । उनके पीछे अपने लश्कर के साथ
१. प्राचीन काल में इन्द्र के सत्कार में इन्द्रमह नामक उत्सव बड़े ठाठ से मनाया जाता था । इस अवसर पर लोग इन्द्रध्वज की पूजा किया करते थे । देखिये- उत्तराध्ययन टीका ( नेमिचन्द्र ) ८, पृ० १३६.
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