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जैन परम्परा का इतिहास समय बाद वह विधि भी असफल होने लगी। ऋषभदेव अग्नि की बात जानते थे। किन्तु वह काल एकान्त स्निग्ध था। वैसे काल में अनि उत्पन्न हो नहीं सकती। एकान्त स्निग्य और एकान्त रूक्ष-दोनो काल अग्नि की उत्पत्ति के योग्य नही होते । समय के चरण आगे बढे । काल स्निग्ध-रूक्ष बना तब वृक्षो को टक्कर से अग्नि उत्पन्न हुई, वह फैली । बन जलने लगे। लोगो ने उस अपूर्व वस्तु को देखा और उसकी सूचना ऋषभदेव को दी। उनने पात्र-निर्माण और पाक-विद्या सिखाई । खाद्य-समस्या का समाधान हो गया । अध्ययन और विकास
राजा ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को ७२ कलाए सिखाई । बाहुबली को प्राणी की लक्षण-विद्या का उपदेश दिया । बडी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियो और सुन्दरी को गणित का अध्ययन कराया। धनुर्वेद, अर्थ-शास्त्र, चिकित्सा, क्रीड़ा-विधि आदि आदि का प्रवर्तन कर लोगो को सुव्यवस्थित और सुसस्कृत बना दिया।
अमि की उत्पत्ति ने विकास का स्रोत खोल दिया। पात्र, औजार, वस्त्र, चित्र आदि-आदि शिल्प का जन्म हुआ। अन्न-पाक के लिए पात्र-निर्माण आवश्यक हुआ। कृषि, गृह-निर्माण आदि के लिए औजार आवश्यक थे, इसलिए लोहकार-शिल्प का आरम्भ हुआ। वस्त्र-वृक्षो को कमी ने वस्त्र-शिल्प और गृहाकार कल्प-वृक्षो की कमी ने गृह-शिल्प को जन्म दिया।
नख, केश आदि काटने के लिए नापित-शिल्ल (क्षौर-कर्म ) का प्रवर्तन हुआ। इन पांचो शिल्लो का प्रवर्तन अग्नि की उत्पत्ति के बाद हुआ ।
कृषिकार, व्यापारी और रक्षक-वर्ग भी अग्नि की उत्तत्ति के बाद बने । कहा जा सकता है-अग्नि ने कृषि के उपकरण, आयात-निर्यात के साधन और अस्त्र-शस्त्रो को जन्म दे मानव के भाग्य को बदल दिया ।
पदार्थ बढे, तब परिग्रह मे ममता बढी, सग्रह होने लगा। कौटुम्बिक ममत्व भी बढा । लोकेषणा और धनेषणा के भाव जाग उठे। राज्यतंत्र और दण्डनीति
कुलकर व्यवस्था मे तीन दण्ड-नीतियाँ प्रचलित हुई। पहले कुलकर