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प्रथमअशियद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
है, प्रत्युत् लोक जीवन के प्रथम सोपान हैं इसका काव्य साहित्य में विशद वर्णन किया गया है
आहार निद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां। धर्मो हि तेषामाधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिःसमाना।। श्रुयतां धर्मसर्वस्वयं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
सत्यं ब्रह्मेति, सत्यं ह्येव ब्रह्मः।
सत्यत्वेष विजिज्ञासितव्यम्।। महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में इन्द्र द्वारा कामदेव के उत्कर्ष प्रसंग में जिस श्लोक को प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया है, उससे भी काव्य वैशिष्ट्य की ध्वनि, प्रतिध्वनित हो रही है।
"त्वं सर्वतोगामि च साधकं च"।।५९
अर्थात् तुम सर्वत्र जाने वाले हो, तुम्हारी गति भी रूक नहीं सकती और तुम्हारे लिए सब कुछ साध्य है।
महाकवि कालिदास के उक्त विचार काव्य वैशिष्ट्य के सन्दर्भ में यथावत ग्रहण किये जा सकते हैं और मेरे विचार से उपर्युक्त तथ्य काव्य वैशिष्ट्य की दृष्टि से प्रभावशाली और ग्राह्य है।
समय-समय पर शोषण और अन्याय के विरूद्ध अपने मान्य सन्देशों द्वारा क्रान्तिकारी परिवर्तन कराकर काव्य ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है।
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