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षष्ठयद: जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा,
च्चेन्न लुम्पति पतिव्रतमेकम् ।।१०
ये सभी प्रसङ्ग माधुर्य गुण से ओत-प्रोत है। किन्तु जैनकुमारसम्भव की भाषा सर्वत्र सरलता एवं सहजता से ही परिपूर्ण नहीं है। जयशेखर सूरि की भाषा वहुश्रुतता को व्यक्त करती है। जयशेखर ने अपने शब्दशास्त्र के पाण्डित्य को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है। काव्य में प्रयुक्त दुर्लभ शब्द, लुङ्ग" कर्मणि लिटर, क्वसु, कानच, सनण्मुल आदि प्रत्ययों का साग्रह प्रयोग पाण्डित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति को द्योतित करता है।
कर्मणि लुङ् के प्रति तो कवि का ऐसा पक्षपात है कि उसने अपने काव्य में आद्यन्त उसका प्रयोग किया है जिससे यत्र-तत्र भाषा वोझिल हो गयी है। यद्यपि विद्वता प्रदर्शन की उनकी यह प्रवृत्ति मर्यादित है। इस संयम के कारण ही जैनकुमारसम्भव की भाषा में सहजता तथा प्रोढ़ता का मनोरम मिश्रण है।
इस महाकाव्य के कुछ वर्णनों में भले ही यथार्थता का अभाव हो किन्तु यह कृति प्रायः माधुर्य की मनोरम छटा बिखेरती है। सुमंगला के वासगृह वर्णन तथा अष्टापद पर्वत वर्णन में कवि ने दो शैलियों के प्रतीक प्रथम में सहजता का लालित्य और द्वितीय में प्रौढ़ता की प्रतिष्ठा कर अपने काल्पनिक वर्णन की मधुरता को इस प्रकार दर्शाया है
"यन्न नीलामलोल्लोचा - मुक्ता मुक्ताफलस्रजः।
भुर्नभस्तलाधार - तारका लक्षकक्षया । । १४
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