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सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
पद्मेषु भेजे प्रशलतुरेनम्।।
६. शिशिर ऋतु का वर्णन
अथ प्रभाह्रासकरौं बिमोच्य दुर्दक्षिणाशां शिशिरतुरंशुम्। अचीकरदीप्तिकरं प्रणन्तु
मिवोत्तरारङ्गमसङ्गमेनम्। महाकवि कालिदास प्रकृति के पुजारी है। उन्होंने कुमारसम्भव में यद्यपि प्रत्येक ऋतु का वर्णन यत्र-तत्र किया है किन्तु उनका वसन्त ऋतु वर्णन वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है
कुवेरगुप्तां दिशमुष्णरश्मौ, गन्तुं प्रवृत्ते समयं विलंध्या दिग्दक्षिणा गन्धवहं मुखेन
व्यलीकनिश्वासमिवोत्ससर्ज।। अर्थात् वसन्त के आगमन के असमय में ही सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और दक्षिण दिशा में बहने वाला मलय पवन ऐसा प्रतीत होता है, जैसे- सूर्य के विरह में वह लम्बी-लम्बी सासें ले रहा हो
और इस ऋतु में झनझनाते बिछुओं वाली सुन्दरी के पाद प्रहार के विना ही अशोक वृक्ष तत्काल ऊपर से नीचे तक पुष्पों से लद जाता है
अश्रूत सद्यः कुसुमान्यशोकः
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