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सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेखरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि अध्याय कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन,
के रूप में भी वर्णित है जैसा कि अन्यत्र संस्कृत साहित्य में दिखाई पड़ते हैं। एक मौलिक बात यह है कि प्रकृति के सौम्य रूपों का वर्णन दोनों ही कवियों ने किया है किन्तु प्रकृति का भयावह रूप का वर्णन कहीं नहीं है।
जैनकुमारसम्भव और कालिदासीय कुमार-सम्भव के तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जैनकुमारसम्भव में कोई अङ्गी रस स्पष्ट नहीं होता जबकि शृङ्गार वात्सल्य और हास्य रस को केवल प्रतिष्ठापित किया गया है यद्यपि उसका चित्रण सुनियोजित ढंग से नहीं किया गया है। इस महाकाव्य में नायक ऋषभदेव के विवाह तथा कुमार (भरत) के जन्म से सम्बन्धित विषय होने के कारण इसमें शृङ्गार रस की प्रधानता अपेक्षित थी किन्तु महाकवि ने अपनी निवृत्ति वादी दृष्टिकोण के कारण इस प्रसंग की अवहेलना किया है। तथा नायक वीतरागिता को उसकी आसक्ति की अपेक्षा अधिक उभारा है। वास्तव में इसमें जो शृङ्गार रस का चित्रण है वह लौकिक वासनात्मक स्वरूप न होकर धर्म प्रधान शृङ्गार के रूप में है चूँकि ऋषभदेव सामान्य नायक नहीं अपितु जैनियों के आराध्य देव के रूप में हैं। अतः कवि अपने पूजनीय एवं आदरणीय नायक को लौकिक शृङ्गार के रूप में वर्णित न कर धर्म प्रधान नायक के रूप में चित्रित किया है जैन काव्य साहित्य के इतिहासभाग छः के अनुसार यद्यपि इस महाकाव्य में अंगी रस का अभाव बताया गया है किन्तु चूँकि किसी महाकाव्य में अंगी रस का होना आवश्यक है अतः शृङ्गार रस इस महाकाव्य का अंगी रस माना जा सकता है। यथा
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