Book Title: Jain Kumar sambhava ka Adhyayan
Author(s): Shyam Bahadur Dixit
Publisher: Ilahabad University

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Page 285
________________ अष्टम् अस्तिलेख : जैनकुमारसम्मत एक प्रेरणा श्रोत पराक्रम को याद कर दूत भेजने का भी पश्चाताप करते है। वह अपने भाई के वध का पाप भी नहीं लेना चाहता। सेनापति सुषेण उसे युद्ध के लिए प्रोत्साहित करता है। पाँचवे सर्ग का नाम है- सेनासज्जीकरण। परन्तु इसमें शरत तथा राजमहिर्षियों का वर्णन किया गया है। छठे से आठवें सर्ग तक भरत की सेना का प्रयाण, सैनिक मुगलों के वन-विहार, चन्द्रोदय, सूर्योदय, रतिक्रीडा का कवित्व पूर्ण वर्णन है। प्रातःकाल भरत की सेना बाहुवलि के विरूद्ध प्रस्थान करती है। ६ से ८ सर्ग में सैन्य प्रयाण के उपरान्त योद्धाओं की प्रेयसियाँ, वियोग से विह्वल हो जाती है। नवें सर्ग में मन्दाकिनी की चारू वर्णन है। सर्ग दश में भरत आदि प्रभु के चैत्य में जाकर उनकी स्तुति करता है, वहीं उनकी भेंट तपस्यारत विद्याधर से होती है। जिसने भरत से पराजित होने के पश्चात् अधिपति नभि तथा विनभि के साथ मुनित्व स्वीकार कर लिया था। सर्ग ग्यारह में चरों से यह ज्ञात है कि बाहुवलि भरत का आधिपत्य स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसके वीरों में अपार उत्साह है। बाहुवलि का मन्त्री सुमन्त्र से षडखण्ड विजेता अग्रज को प्राणीपात करने का परामर्श देता है, बाहुवलि सेना एकत्र करके युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। बारहवें सर्ग में भरत अपनी सेना को भावी युद्ध की गुरुता का भान करता है तथा उसकी विषय में ही अपने चक्रवर्तित्व की सार्थकता मानता है। सेनापति सुषेण उसे विजय का विश्वास दिलाता है। सर्ग तेरह में बाहुवलि अपने सैनिकों को उत्साहित करता है। सिंह रथ को सेनाध्यक्ष २६८

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