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षष्ठमशिद : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा,
में किस व्यक्ति की प्रवृत्ति नही है? मनुष्य के भावों का यह सूक्ष्म अवलोकन
है।
कवि जयशेखर सूरि पुरुष के हृदय में उत्पन्न भावों मात्र से ही परिचत नही है, प्रत्युत नारी भावों के उद्गम स्थान (हृदय) से भी पूर्ण रूपेण परिचित है। नारी के हृदय को निश्चल कोश स्वीकार करते हुए कवि कहता है कि
योषितां रतिरलं न दुकूले
नापि हेम्नि न च सन्मणिजाले ।
अन्तरंग इह यः पतिरंगः,
सोऽदसीयहृदि निश्चलकोशः ।। २३
इस प्रकार अपने पति के प्रति दासीभाव को ग्रहण करने वाली तथा पति के प्रति अनासक्ति भाव को धारण करने वाली स्त्रियों का वर्णन करते हुए कवि कहता है
या प्रभुष्णुरपि भर्तरि दासी
भावमावहति सा खलु कान्ता।
कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा
योषितः क्षतजशोषजलूकाः॥२४
अर्थात् समर्थवान होते हुए भी जो स्त्री पति के प्रति दासीभाव का धारण करती है, वह भी पत्नी है। शेष स्त्रियां तो खून चूसने वाली जोंक के समान हैं।
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