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सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
क्षुऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव।।१६
सूक्तियों के विधान से भाषा प्रौढ़, मधुर एवं शसक्त हो जाती है। कुमारसम्भव सूक्तिसार संग्रह है। कुछ विशिष्ट सूक्तियाँ इस प्रकार है१. एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणोष्विवाङ्कः।११-१.३
कठिना खलु स्त्रियः। -४/५ कु०सं० ३. वृक्षवृक्षोऽपि संवध्यं स्वयं क्षेत्तुमसाम्प्रतम्। -२/५५ ४. अप्यप्रसिद्धं यज्ञे स हि पुसामनन्यसाधारणमेव कर्म।। -३/१९
अशोच्या हि पितुः कन्या सद्भर्तृप्रतिपादिता। -६/७९
स्त्रोतं कस्य न तुष्टये? -१०/९ ७. अनन्तपुष्पस्य मघोर्हि चूते द्विरेफमाला सविशेष सङ्गा।। -१/२७
पूर्वोक्त सरस सूक्तियों के कारण कालिदास की भाषा प्राञ्जल हो गयी है तथा सरस एवं सुबोध होने के कारण अत्यन्त मनोहारी हो गयी है।
जैनकुमारसम्भव की भाषा उदात्त एवं प्रौढ़ है जो कवि की मुख्य विशेषता है। इसमें अधिकांशतः प्रसादपूर्व एवं भावानुकूल पदावली प्रयुक्त है तथा प्रसंगानुकूल ही भाषा का व्यवहार किया गया है। इस महाकाव्य की सुन्दरता का श्रेय इसमें प्रयुक्त अनुप्रास और यमक अलङ्कार के प्रयोग को है। जिससे भाषा में माधुर्य और मनोहरता आ गयी है। कवि ने माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणों का यथास्थान सुन्दर विवरण प्रस्तुत किये हैं। इसकी भाषा
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