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सप्तम् मुरिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि अध्मान
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
प्रायेण गृहणीनेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः।।२ जिस समय अंगिरा ऋषि शिव की महिमा का वर्णन कर रहे थे, उसे सुनती हुई पार्वती के भाव परिवर्तनों के संदर्भ में कालिदास कहते हैं
एवंवादिनि देवर्षों पार्श्वे पितुरधोमुखी।
लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।।२३ अर्थात् पति विषयक वार्ता को सुनकर पार्वती लज्जा वश अपने पिता के पास नम्र मुखी हो लीला कमल पत्रों को गिन रही थी।
शिवपार्वती का विवाह तय हो चुका है। पार्वती की पति प्राप्ति विषयक उन्मुखता का वर्णन किया जा चुका है। इधर पार्वती जी से मिलने की उत्सुकता में शंकर जी के उत्पन्न भावों के संदर्भ में कवि की उक्ति इस
प्रकार है
पशुपतिरपि तान्य हानि कृच्छाद गमयदद्विसुता समागमोत्कः। कमपरवशं न विप्र कुर्युर्विभुमपि तं पदमी स्पृशान्ति भावाः।।
अर्थात् हिमालय की पुत्री पार्वती से मिलने की उत्सुकता में महादेव जी ने उन तीन दिनों को बड़ी कठिनाई से बिताया। भला जब सांसारिक भाव जितेन्द्रिय भगवान शंकर को इस प्रकार विकल बना सकते है, तो फिर दूसरा ऐसा कौन हो सकता है, जो उससे अधीर न हो सके।
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