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सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
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साचीकृता चारुतरेण तस्थो मुखेन पर्यस्तविलोचनेन"॥८
(इधर) शंकर जी की दृष्टि पड़ते ही पार्वती का सम्पूर्ण अङ्ग प्रफुल्लित कदम्ब पुष्प के समान रोमांचित हो उठा, जिससे उनके हृदय का (शंकर के प्रति) मधुर भाव छिपा न रह सका। उनकी आखें लज्जा से झुक गई और वह तनिक तिरछी सी होकर खड़ी हो गयी। उस समय उनका मुख और भी सुन्दर लगने लगा।
किसी अभिलषित की प्राप्ति की आशा में प्रसन्न वदन होना स्वाभाविक है, किन्तु हानि के प्रति दुःख का होना कहीं उससे कम स्वाभाविक नहीं
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शिव के त्रिनेत्र से निकली अग्नि द्वारा अपने मृत पति के वियोग में विलखती रति, कामदेव के मित्र वसन्त के आते ही अत्यधिक शोकाकुल हो जाती है रति के भाव परिवर्तनों के विषय में महाकवि कहते है
"तमवेक्ष्य रुरोद साभृशं स्तनसम्वाधमुरो जघान च।
स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोप जायते"॥९ अर्थात् वसन्त को देखते ही रति छाती पीट-पीट कर और भी जोर से रोने लगी, क्योंकि अपने सामने प्रियजनों को देखकर दुःख का द्वार एकाएक खुल सा पड़ता है।
तपोवन में पार्वती तप में लीन हैं। छद्म-वेशधारी (शिव) ब्रह्मचारी उनके
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