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बळ,
: जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा,
रखती है, वास्तविक रूप में वही स्त्री कहलाने की अधिकारिणी है। शेष स्त्रियाँ तो खून चूसने वाले जोक की तरह है। तथा ऋषभ की स्वीकृति - प्राप्ति के लिए उपर्युक्त वातावरण का निर्माण करता है।
जयशेखर ने काव्यशास्त्र में मान्य प्रसाद, माधुर्य तथा ओजगुणों का यथास्थान सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है। अतएव जैनकुमारसम्भव में ये तीनों गुण विद्यमान है। इस महाकाव्य की भाषा प्राञ्जल है । अतः इसके अनेक प्रसंगों में प्रसाद गुण सम्पन्न वैदर्भी रीति का प्रयोग दिखाई पड़ता है। विशेषकर सुमंगला के वासगृह का वर्णन तथा पञ्चम सर्ग में वर-वधू को दिये गये उपदेश प्रसाद्गुण की सरसता तथा स्वाभाविकता से परिपूर्ण है। इन दोनों प्रकरणों की भाषा सहज है अतः वह तत्काल हृदयंगम हो जाती है । विवाहोत्तर 'शिक्षा' का यह अंश इस दृष्टि से उल्लेखनीय है
" अन्तरेण परुषं नहि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि । या प्रभुष्णुरपि भर्तरि दासी - भावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा, योषितः क्षतजशोषजलूकाः॥
मृदुलता तथा सहजता भाषा के माधुर्य की सृष्टि करते है। तृतीय सर्ग में इन्द्र ऋषभदेव संवाद में माधुर्य की मनोरम छटा दर्शनीय है।
वीतराग ऋषभदेव को विवाहार्थ प्रेरित करने वाली इन्द्र की युक्तियां इस प्रकार है
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