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प्रथम महिछेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/
जैनकुमारसम्भव का सामान्य परिचय
महाकवि कालिदास के कुमारसम्भव से प्रेरणा ग्रहण कर आंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभुसूरि के शिष्य महाकवि जयशेखरसूरि ने इस महाकाव्य की रचना की है। यह महाकाव्य ११ सर्गों में विभक्त है तथा सम्पूर्ण श्लोक की सख्या ८५० है। कुमार भरत के जन्म को लक्ष्य कर इस महाकाव्य की रचना की गयी है। किन्तु भरत जन्म का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके छठे सर्ग में सुमङ्गला के गर्भाधान का सङ्केत अवश्य मिलता है२६। कवि ने इसे महाकाव्य कहा है। किन्तु कुछ विद्वानों के मत में यह एकार्थ काव्य है। सम्भवतः पूरुषार्थ चतुष्टय में से केवल मोक्ष प्राप्ति के प्रधान वर्णन के कारण विद्वानों ने इसे एकार्थ काव्य माना है। काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में एकार्थ काव्य की सूचि में इसका नामोल्लेख मिलता है। जो भी हो देवाश्रित चरित्र के अंकन से यह पौराणिक और भरत आदि के ऐतिहासिक प्रख्यात पात्र के वर्णन से यह ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसमें महाकाव्य के भी अधिकांश लक्षण विद्यमान है। जैसा कि आचार्य विश्वनाथ ने अपने महाकाव्य लक्षण में वर्णित किया है। अर्थात् इस महाकाव्य का नायक धीरोदात्तादि गुणों से युक्त सद्वंशीय क्षत्रीय है इसमें शृङ्गार रस, वात्सल्य रस, हास्य रस आदि का वर्णन दृष्टिगत होता है। इसमें विभिन्न छन्दों यथा इन्द्रबज्रा, उपेन्द्रबज्रा, उपजाति, वंशस्थ आदि सत्तरह छन्दों की योजना है। सर्गो की सख्या आठ से भी अधिक ग्यारह है। प्रकृति चित्रण के साथ-साथ महाकाव्य में नाटकीयता लाने तथा रसभाव निरन्तरता को स्थिर रखने के लिए सर्गान्त में भावी सर्ग की कथा का सङ्केत भी दृष्टिगत
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