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पञ्चम, पहिलोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
इस प्रकार आचार्य भरत की तुलना में भामह ने काव्य दोषों की संख्या में वृद्धि की है। जबकि भामहाचार्य के ही समकालीन आचार्य दण्डी ने मात्र दश दोषों का ही विवेचन किया है, जिसका भामह ने पहले ही प्रतिपादन कर दिया था। दण्डी के दस दोष है अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, मतिभ्रष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि और देशकाल, कला, लोक, न्याय, आगमविरोधी।१५ अतः दोष प्रसंग में दण्डी ने कोई नवीन बात नहीं कही है। ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने श्रुतिदुष्टत्व, ग्राम्यत्व और असभ्यत्व इन तीन दोषों का विभिन्न प्रसङ्गों में नामोल्लेख किया है तथा पांच रस दोषों का भी विवेचन किया है, किन्तु अनौचित्य को उन्होंने रस-भंग का सबसे प्रमुख दोष माना है।१४२
आचार्य मम्मट का दोष विवेचन सर्वाधिक विस्तृत है। काव्य सम्बन्धी जितने अधिक दोष सम्भव हो सकते थे प्रायः उन सभी को आचार्य मम्मट ने गिना दिया है। उनके द्वारा प्रतिपादित लगभग सत्तर दोष है जिन्हें उन्होंने कई भागों में विभक्त करके प्रतिपादित किया है- शब्द दोष, अर्थ दोष और रस दोष। पुनः शब्द दोष के तीन भेद किये हैपद दोष, पदांश दोष और वाक्य दोष। इस प्रकार मम्मट सम्मत दोषों को पांच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- १. पद दोष २. पदांश दोष ३. वाक्य दोष, ४. उभय दोष ५. अर्थ दोष और ६. रस दोष जैनकुमारसम्भव में प्रयुक्त कुछ दोष निम्नवत् है
१. अप्रयुक्त दोष
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