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चतुर्थ प
तात्पर्य यह है कि पतिभक्ति रूपी गुणों से परिचित स्त्री के लिए तन्त्र-मन्त्र की कोई आवश्यकता नही है ! पतिव्रत का वर्णन करते हुए कहती है
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"मास्य तप्यतः तपः परितक्षीन् मा तन्मतनुभिर्वतकष्टैः । इष्ट सिद्धिमिह विन्दति योषि- चेन्न लुम्पति पतिव्रतमेकम् ।।४७
शील रूपी रत्न की महत्ता का वर्णन करती हुई कहती है
"उग्रदुर्ग्रहमभंगमयत्न- प्राप्ययाभरणमस्ति नशीलम् । चेत्तदा वहति काञ्चनरलै-वविधं मृदुपलैर्महिलाकिम् ।।४८ 'माज्जितोऽपि घनकज्जलपङ्के, शुभ्र एवं परिशीलतशीलः । स्वर्धुनीसलिल धौत शरीरोऽप्युच्यते शुचिरूचिर्न कुशीलः ॥ | कष्टकर्म नहि निष्फलमेतच्चेत नावदुदितं न वचो यत् शीलशैलशिखरादवपातः, पातकापयशसोर्वनितानाम् ।। ४९"
: पात्रो का विवेचन
इस तरह से सुनन्दा और सुमंगला तुम स्त्री' भूषण रूपी गुणों का उपार्जन करने का यत्न करो
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तद्युवापि तया प्रयतेथां स्त्रेणभूषण गुणार्जन हेतोः
येन वां प्रति दधाति समस्तः, स्त्रीगणोगुणविधौगुरुवुद्धिम् । ।
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इस प्रकार वर वधू को उपदेश देकर समस्त देव समूह देवलोक
को चले जाते हैं यहाँ सची को एक उपदेष्टा अर्थात् गुरु के रूप में
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