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पञ्चम सिमेट : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलवार, गुण एवं दोष
एण एवं दोष
अविवक्षित होने पर भी काव्य व्यवहार होता ही है। अतः वामन के मत में भी व्यभिचार आ जाता है। अतः अलङ्कार अंगाश्रित व गुण रसाश्रित होते हैं यह हमारा मत ही श्रेयस्कर है।६
आचार्य नरेन्द्रप्रभ सूरि का गुण-स्वरूप आचार्य आनन्दवर्धन व मम्मट के गुण-स्वरूप का मेल है। उन्होंने गुण के लिए आवश्यक और पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत सभी उत्कृष्ट तत्वों को ग्रहणकर गुण-स्वरूप निरूपण किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार शौर्यादि गुण आत्मा के आश्रित रहते है, उसी प्रकार जो रस के आश्रित रहते है, अकृत्रिम हैं, नित्य हैं तथा काव्य में वैचित्र्य के उत्पादक हैं, वे गुण कहलाते हैं।
शौर्यादय इवात्मानं रसभेव श्रयन्ति ये
गुणास्ते सहजा काव्ये नित्यवैचित्र्यकारिणः।।५७ इसी को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिस प्रकार प्राणी के शौर्य, स्थैर्य आदि गुण आत्मा के ही आश्रित रहते हैं; आकार में नहीं, उसी प्रकार माधुर्यादि गुण भी रस के ही आश्रित रहते हैं। ये गुण रस के ही धर्म हैं, वर्ण समूह के नहीं। यही अलङ्कारों से गुण का भेद है। क्योंकि गुणों के अभाव में अलङ्कारों से युक्त रचना भी काव्य न हो सकेगी। जैसा कहा भी गया है कि यदि योवन शून्य स्त्री के शरीर की तरह गुणों से शून्य काव्यवाणी हो, तो निश्चय ही लोकप्रिय अलङ्कार भी धारण करने पर अच्छी नहीं लगती है।
वाग्भट- प्रथम, वाग्भट- द्वितीय व भावदेवसुरि- इन जैनाचार्यों ने