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पञ्चम अडिगोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष,
कि गुण तथा दोष का रसाश्रित होना अन्वय व्यतिरेक के विधान से भी सिद्ध है। जहाँ दोष रहते हैं वहीं गुण भी रहते है और वे दोष रस विशेष में रहते है शब्द और अर्थ में नहीं। यदि वे शब्द और अर्थ के दोष होंगे तो वीभत्स रस में कष्टत्वादि तथा हास्यादि रसों में अश्लीलत्वादि दोष गुण नहीं हो पायेंगे। क्योंकि ये अनित्य दोष हैं, कभी दोष रहते हैं, कभी नहीं भी रहते और कभी-कभी गुण भी हो जाते हैं। जिस अंगी रस के वे दोष होते हैं उसके अभाव में वे दोष नहीं रह जाते, उसके रहने पर दोष रहते हैं। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक के द्वारा गुण और दोष का रसाश्रयत्व ही सिद्ध होता है। शब्दार्थाश्रितत्व नहीं गौण रूप में भले ही वे गुण और दोष शब्दार्थ के कहे जायें किन्तु वास्तविक रूप में वे रसाश्रित धर्म हैं।" ___हेमचन्द्राचार्य ने अंग के आश्रित रहने वाले धर्मों को अलङ्कार कहा है।९ तथा अपनी विवेक टीका में पूर्वाचार्यों के विचारों का खण्डन प्रस्तुत करते हुए गुणालङ्कार विवेकार का प्रतिपादन किया है। इसमें भट्टोदभट के अभेदवादी मत व वामन के भेदवादी मत का खण्डन और स्वमत का प्रतिपादन किया है। जिसमें मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है।
जैसा कि पूर्वकथित है कि भट्टोद्भटने गुण व अलङ्कार में कोई भेद नहीं माना है। उनके इस मत को हेमचन्द्राचार्य ने निरस्त कर दिया है।३ उनका कथन है कि काव्य के सन्दर्भ में अलङ्कारों को ही रखा व हटाया जाता है, गुणों को नहीं तथा अलङ्कारों को त्याग करने से न तो
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