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पञ्चम सिद: जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष)
ओज, प्रसाद, मधुरिमा, साम्य और सौदार्य नामक ५ गुणों का भी खण्डन किया है तथा उनका भी खण्डन किया है जो छन्द विशेष के आधार पर गुणों की शोभा मानते हैं, जैसे स्रग्धरा आदि छन्दों में ओजो गुण आदि। उनकी मान्यता है कि लक्षण में व्यभिचार होने से, उच्यमान तीन ही गुणों में अन्तर्भान होने से या दोष परिहार के रूप में स्वीकृत होने से अन्य गुणों को नहीं माना जा सकता। अतः उनके अनुसार गुण तीन ही हैं, दस अथवा पांच नहीं
त्रयो न तु दश पञ्च वा। लक्षणव्यभिचारादुच्यमानगुणेष्वन्तर्भावात्। दोषपरिहारेण स्वीकृतत्वाच्च।
इस सन्दर्भ में उनकी विवेक टीका अति महत्त्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने दस गुणों के अतिरिक्त पांच गुणों का उल्लेखपूर्वक खण्डन किया है जो कि उनके व्यापक अध्ययन का परिचय प्रस्तुत करता है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा स्वीकृत माधुर्य, ओज व प्रसाद गुण का विवेचन इस प्रकार है
(१) माधुर्य
माधुर्य गुण संभोग शृङ्गार में द्रुति का हेतु है। अर्थात् द्रुतिका हेतु और संभोग शृङ्गार में रहने वाला जो धर्म है वह माधुर्य कहलाता है। द्रुति का अर्थ है आर्द्रती अर्थात् चित्त का द्रुवीभाव। शृंगार के अंगभूत हास्य और अद्भुत आदि रसों में भी माधुर्य गुण होता है। अत्यन्त द्रुति का कारण होने से यह माधुर्य गुण शान्त, करुण और विप्रलम्भ शृङ्गार में भी अतिशय युक्त (चमत्कारोत्पादक) होता है।३