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पञ्चमतिरोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष,
के रूप में प्रस्तुत किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने एक और प्रत्युदाहरण प्रस्तुत कर शृङ्गार के प्रतिकूल वर्गों को दिखाया है। यथा
वाले मालेयमुच्चैर्न भवति गगन व्यापिनी नीरदानां। कि त्वं पक्षमान्तवान्तैर्मलिन यसिमुधा वक्त्रमश्रुप्रवाहैः एषा प्रोवृत्तमन्तद्विपकटकषणक्षुण्णवन्ध्योपलाभा।
दावाग्नेवोम्नि लग्ना मलिनयति दिशां मण्डलं धूमलेखा।।१०२ यहाँ दीर्घ समास से युक्त, परुष वर्णों वाली रचना विप्रलम्ब शृंगार के विरुद्ध है।
(२) ओजस
चिन्त की दीप्ति अर्थात् उज्ज्वलता या विस्तार में जो कारण हो वह ओजगुण कहलाता है। यह वीर, वीभत्स और रौद्ररस में क्रमशः अधिक अतिशयान्वित होता है अर्थात् वीर की अपेक्षा वीभत्स और वीभत्स की अपेक्षा रौद्ररस में तथा रौद्र के अंगभूत अद्भुत रस में भी ओजगुण क्रमशः अधिक अतिशय युक्त होता है।०३ ओजगुण के विवेचन में भी मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है। आचार्य हेमचन्द्र ने मात्र “तेषामंगेऽद्भुते च" . अधिक कहा है। व्यञ्जकों के निरूपण में भी मम्मट से पूर्ण समानता है।
योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः। टादिः शषौ वृत्तिदैर्ध्य गुम्फ उद्धत ओजसि।।१०५"
आचार्य हेमचन्द्र लिखते है कि वर्ग के प्रथम और तृतीय वर्णों का
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